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पतनशील लोकतंत्र में कैसे टिके पत्रकारिता? भारत और हंगरी के संपादकों ने बताए पाँच उपाय
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यह आलेख मूल रूप से ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय स्थित ‘द रॉयटर्स इंस्टीट्यूट’ ने प्रकाशित किया था। अनुमति लेकर यहां पुनः प्रकाशित किया गया है। मूल आलेख का लिंक।
दुनिया के कई देश आजकल लोकतंत्र में गिरावट का सामना कर रहे हैं। इन देशों के पत्रकारों को भी जनहित से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। ‘रॉयटर्स मेमोरियल लेक्चर’ (वर्ष 2023) में निकारागुआ और वेनेजुएला के पैनलिस्टों ने अपने देशों में प्रेस की आजादी में गिरावट की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि यह बात पूरी दुनिया के लिए एक चेतावनी है।
वेनेजुएला की संपादक लूज मेली रेयेस ने कहा- “लोगों को लगता है कि लोकतंत्र हमेशा के लिए कायम रहेगा। लेकिन अब हम सबको दिख रहा है कि ऐसा नहीं है।”
तानाशाही शासन वाले देशों में पत्रकारों को अपना काम जारी रखने के लिए काफी खतरे उठाने पड़ते हैं। पत्रकारिता के कारण उन्हें लंबे समय तक जेल की सजा और हिंसा का सामना करना पड़ सकता है।
दूसरी तरफ, भारत और हंगरी जैसे कई देशों में अब भी लोकतांत्रिक शासन का मुखौटा है। लेकिन कई तरह की मनमानी और दमनकारी नीतियों के कारण सार्वजनिक प्रतिस्पर्धा, राजनीतिक भागीदारी और प्रेस की स्वतंत्रता बाधित होती है। सवाल है कि ऐसे देशों में समाचार संगठन अपने पत्रकारिता संबंधी काम में कैसे टिके रहते हैं?
लोकतंत्र में गिरावट के बावजूद पत्रकार अपनी रिपोर्टिंग जारी रखने के लिए क्या कर सकते हैं? यह जानने के लिए मैंने दो संपादकों से बात की-
पीटर एर्डेली – ‘रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म’ के पूर्व पत्रकार फेलो। हंगरी के ऑनलाइन अखबार 444.hu और फैक्ट चेकिंग वेबसाइट Lakmusz के पूर्व निदेशक।
रितु कपूर – ‘द रॉयटर्स इंस्टीट्यूट’ में सलाहकार बोर्ड की सदस्य। भारत के मोबाइल-फस्र्ट डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म The Quint की संस्थापक और सीईओ।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने प्रेस फ्रीडम इंडेक्स, 2023 ) जारी किया। इसमें हंगरी की स्थिति को समस्याग्रस्त के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसमें हंगरी के ताकतवर राष्ट्रपति विक्टर ओर्बन को ‘प्रेस स्वतंत्रता का शिकारी’ कहा गया है। भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। लेकिन प्रेस फ्रीडम इंडेक्स, 2023 में भारत में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति को ‘बेहद गंभीर’ बताया गया है। मौजूदा वर्ष में अब तक दस पत्रकारों को हिरासत में लिया गया है और एक की हत्या कर दी गई है।
पत्रकार क्या कर सकते हैं?
हंगरी और भारत दोनों देशों के लोकतंत्र में गिरावट दिख रही है। लेकिन दोनों देशों में इसकी प्रक्रिया अलग चरणों में है। इसके कारण यह विचारणीय है कि पत्रकार अपना काम कैसे करें। रितु कपूर कहती हैं- “पत्रकारों को किस तरह काम करना चाहिए, यह इस बात पर निर्भर करता है लोकतंत्र में गिरावट का स्तर क्या है और इसके खिलाफ किस हद तक लड़ाई संभव है।”
ऐसे प्रतिकूल माहौल में पत्रकारों के उत्पीड़न संबंधी अनुभव उनकी उम्र, लिंग, नस्ल, वंचित समूह और जातीयता इत्यादि के आधार पर अलग-अलग होते हैं। जैसे, महिलाओं को ऑनलाइन उत्पीड़न का अधिक खतरा है। उन्हें काफी वीभत्स उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। ब्राजील की पत्रकार डेनिएला पिनहेइरो और अमेरिका की दुष्प्रचार शोधकर्ता नीना जानकोविज के अनुभव से इसका पता चलता है।
यह उत्पीड़न रंगभेद की शिकार महिलाओं और हाशिए की पहचान वाले लोगों के लिए ज्यादा बुरा होता है। जैसे, भारत में मुस्लिम महिलाओं को ऑनलाइन ‘नीलामी’ जैसे सोशल मीडिया उत्पीड़न अभियान का सामना करना पड़ा है। इसमें प्रमुख मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरों और परिचय के साथ उनकी नकली नीलामी के लिए वेबसाइटों या ऐप्स पर प्रचारित किया गया।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए दो पत्रकारों के अनुभव पर आधारित पांच सुझाव यहां प्रस्तुत हैं। इन दोनों पत्रकारों ने तमाम दबावों के बावजूद मीडिया संस्थान बनाए और उन्हें विकसित किया। उनके अनुभव दुनिया भर के पत्रकारों के लिए उपयोगी हो सकते हैं।
1. गंभीर पत्रकारिता पर ध्यान दें
सटीकता हमारी पत्रकारिता की आधारशिला है। तथ्यों में कोई गलती नहीं होनी चाहिए। लेकिन किसी प्रतिकूल वातावरण में काम करने वाले पत्रकारों के लिए यह विशेष रूप से जरूरी है। यदि आप सत्ता के खिलाफ संघर्ष कर रहे हों, तो कोई भी गलती आपके संस्थान पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकती हैं। रितू कपूर कहती हैं- “जल्दबाजी में रिपोर्टिंग करने या सनसनीखेज बनने की कोशिश न करें। यह सुनिश्चित करें कि आप जो प्रकाशित कर रहे हैं, वह बिल्कुल ठोस हो। उसमें किसी विवाद की गुंजाइश न हो। यदि आप किसी मनमानी व्याख्या के लिए एक छोटी-सी खिड़की भी खुली छोड़ते हैं, तो खुद को जोखिम में डाल रहे हैं।”
लोकतंत्र में गिरावट वाले देशों में पत्रकारों पर शासन को जवाबदेह ठहराने की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी है। इसके कारण पत्रकारों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन उन प्रभावशाली लोगों के खिलाफ रिपोर्ट करने के तरीके पर इन चुनौतियों का कोई अनुचित प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। रितू कपूर चेतावनी देती हैं- “अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर कोई खेल न करें वरना आप अपने पाठकों का भरोसा खो देंगे।”
‘द क्विंट’ के अनुभव से रितू कपूर ने पत्रकारिता के प्रभाव को अधिकतम करने के लिए अपने पास मौजूद संसाधनों के समुचित उपयोग का सुझाव दिया। ‘द क्विंट’ की स्थापना वर्ष 2014 में हुई थी। उस वक्त आरएसएफ के प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के 180 देशों की सूची में भारत 140 वें स्थान पर था। अब 2023 में भारत का स्थान गिरकर 161वां हो चुका है। प्रारंभ में कई अन्य डिजिटल मीडिया संस्थानों की तरह ‘द क्विंट’ ने भी प्रतिदिन भारी संख्या में लेख और वीडियो प्रकाशित किए। लेकिन अब ‘द क्विंट’ ने अपने आउटपुट में भारी कटौती की है। प्रतिदिन लगभग 300 रिपोर्ट प्रकाशित करने के बजाय अब केवल 30 रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। यानी इसमें 90 प्रतिशत की कमी कर दी गई।
अपने पाठकों को बड़ी संख्या में सामग्री से प्रभावित करने के बजाय ‘द क्विंट’ अब ठोस असर डालने और अनकही कहानियाँ बताने पर ध्यान केंद्रित करता है। अपनी सफलता को मापने का पैमाना अब बदल गया है। पेज-व्यू और संख्याओं से हटकर अब अपने पाठकों को बहस का हिस्सा बनने के लिए प्रोत्साहित करने की दिशा में ज्यादा प्रयास होते हैं।
इसके तहत सामग्री वितरण और पाठकों से जुड़ाव के लिए सोशल मीडिया का उपयोग किया जाता है। रितू कपूर कहती हैं- “इंस्टाग्राम में हम जानबूझकर इस प्लेटफॉर्म के प्रारूप और शैली के अनुसार सामग्री बनाते हैं। पाठकों को हमारी साइट तक लाने के लिए टीजर के रूप में इनका उपयोग करते हैं। यूट्यूब हमारे लिए एक महत्वपूर्ण मंच के रूप में काम करता है। यह वीडियो देखने का प्राथमिक स्थान है।”
2. आर्थिक रूप से व्यावहारिक बनें
मीडिया संस्थान के लिए वित्त का मुद्दा महत्वपूर्ण है। अपने पाठकों पर प्रभाव डालने, स्वस्थ सार्वजनिक बहस को बढ़ावा देने और पत्रकारिता का बुनियादी काम करने के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है।
यह सभी परिवेश में काम करने वाले समाचार संगठनों पर लागू होता है। लेकिन जब पत्रकारिता को शत्रुतापूर्ण राजनीतिक माहौल से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, तब यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
रितू कपूर के अनुसार भारत में मीडिया संगठनों पर मनी लॉन्ड्रिंग या टैक्स-चोरी जैसे आर्थिक अपराधों के आरोप लगाए जाते हैं। पहले पत्रकारों के खिलाफ मानहानि के आरोपों का इस्तेमाल किया जाता था। उस पारंपरिक न्यायिक रणनीति को बदलकर अब आर्थिक आरोप लगाने का प्रचलन बढ़ा है। अदालतों में धीमी कानूनी प्रक्रिया के कारण यह परेशानी ज्यादा बढ़ जाती है। पत्रकारों के उत्पीड़न का एक तरीका उनकी यात्रा पर प्रतिबंध लगाना है। वर्ष 2022 में राणा अय्यूब का उदाहरण देख सकते हैं। इसके अलावा, पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की प्रतिष्ठा धूमिल करने के प्रयास चलाए जाते हैं। इसके कारण मीडिया संगठनों और संपूर्ण पत्रकारिता की विश्वसनीयता कम होती है। साथ ही इसके कारण काफी आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता है।
लोकतंत्र और मीडिया पर संकट के ऐसे माहौल में स्वतंत्र मीडिया संस्थान के संचालन के लिए पाठकों से आर्थिक मदद लेना एक सही विकल्प है। ऑनलाइन डिजिटल मीडिया संगठनों द्वारा पाठकों से भुगतान के विकल्प को ‘पेवॉल्स’ कहा जाता है। वेबसाइट में दिए लिंक के सहारे पाठक कोई आर्थिक सहायता कर सकते हैं या वार्षिक सदस्यता ले सकते हैं। लेकिन रितू कपूर के अनुसार भारत में पेवॉल्स का समय अभी नहीं है। फिलहाल यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जानकारी के विश्वसनीय स्रोतों तक अधिकतम लोगों के पास पहुंच हो। दुर्भाग्यवश, एक कठिन माहौल में किसी समाचार संगठन के रूप में वित्तीय रूप से व्यावहारिक बने रहने का मतलब अक्सर पत्रकारों के लिए नौकरी के अवसर कम होना है।
‘द क्विंट’ इन आर्थिक चुनौतियों का मुकाबला कैसे करता है? रितू कपूर के अनुसार उनका संस्थान पहले की तुलना में अब बहुत छोटा है, जो गिरावट को भी दर्शाता है। टीम कई प्रयोग कर रही है। ऐसे उपकरणों का अधिक उपयोग कर रही है जिनके लिए कम मानव संसाधनों की आवश्यकता होती है।
‘द क्विंट’ में फिलहाल 143 लोग कार्यरत हैं। इनमें से 70 पत्रकार हैं। पिछले वर्ष इसका राजस्व लगभग 5 मिलियन अमेरिकी डॉलर था। राजस्व का मुख्य स्रोत ऑनलाइन विज्ञापन है। लोकतंत्र के पतन का सामना कर रहे देश में यह मुश्किल हो सकता है। रितू कपूर के अनुसार विज्ञापन पर निर्भर समाचार संगठन ‘बहुत शुद्धतावादी’ नहीं हो सकते। इसलिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि प्रायोजन और विज्ञापनों के मामले में कैसी सीमा रेखा हो। जैसे, ‘द क्विंट’ सरकारी विज्ञापन की स्वीकार नहीं करता है। इस मीडिया कंपनी को मेटा द्वारा तथ्य-जांच कार्यक्रम के हिस्से के रूप में वित्तपोषित किया जाता है।
3. अपने पाठकों से मदद लें
लोकतंत्र में गिरावट का शिकार कुछ देशों में विज्ञापन दाताओं में मीडिया संगठनों के प्रति पर भरोसे की कमी दिखती है। कुछ मीडिया संस्थान एक वैकल्पिक मॉडल के बतौर पाठकों से मदद लेते हैं। खासकर सदस्यता के रूप में। विज्ञापन बाजार में सरकारी हस्तक्षेप को देखते हुए हंगरी के मीडिया संस्थान 444.hu ने भी यही समाधान निकाला है। पीटर एर्डेली बताते हैं- “पहले हमने दर्शकों से आर्थिक मदद लेने की कोई योजना नहीं बनाई थी। तीन साल तक हमने इसके बिना ही काम चलाने का प्रयास किया। लेकिन फिर विज्ञापन बाजार में सरकारी हस्तक्षेप काफी बढ़ गया। तब हमें एहसास हुआ कि हम केवल विज्ञापनों के सहारे जीवित नहीं रह पाएंगे।”
पीटर एर्डेली ने बताया कि 444.hu की सदस्यता योजना चार साल लंबी प्रक्रिया के दौरान विकसित हुई। पहली बार 2017 में चंदा लेना शुरू किया गया। फिर क्राउडफंडिंग का प्रयोग किया। अगस्त 2020 में पूर्ण सदस्यता शुरू हुई। वह कहते हैं- “यह धीरे-धीरे हुआ। हमारे पास पहले से मदद करने वाले पाठकों का समूह था। कई वर्षों अनुभवों से हमें सीखने, असफल होने और प्रयोग करने का अवसर मिला।”
444.hu के प्रकाशक मग्यार जेटी जर्ट के सीईओ गैबोर कार्डोस के अनुसार फिलहाल उन्हें भुगतान करने वाले लगभग 22,000 सदस्य हैं। उनके प्रकाशन के वार्षिक राजस्व का आधे से अधिक हिस्सा इस पाठक सदस्यता से आता है। बाकी ज्यादातर राजस्व विज्ञापन से आता है। इसके अलावा अनुदान परियोजनाओं जैसे अन्य स्रोतों से एक छोटा हिस्सा आता है।
वर्ष 2022 में उनके प्रकाशन का कुल राजस्व लगभग 2.7 मिलियन अमेरिकी डॉलर था। हालाँकि यह आंकड़ा यूरो और हंगेरियन फोरिंट के बीच अस्थिर रूपांतरण दर पर निर्भर करती है। 444.hu में 30 पूर्णकालिक पत्रकार कार्यरत हैं। अन्य दो सहयोगी इकाइयों में दस पत्रकार नियुक्त किए गए हैं। इनमें एक इकाई विज्ञान पत्रिका Qubit है। दूसरी इकाई तथ्य-जांच आउटलेट Lakmusz है। इनकी सामग्री भी 444.hu के लैंडिंग पेज पर प्रकाशित होती है।
हर देश के नागरिकों की तरह पतनशील लोकतंत्र वाले देशों के नागरिक भी विभिन्न कारणों से स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए आर्थिक भुगतान करते हैं।
रॉयटर्स डिजिटल न्यूज रिपोर्ट 2023 के एक सर्वे मुताबिक़ अनुसार इंग्लैंड, अमेरिका और जर्मनी में ऑनलाइन समाचारों की सदस्यता लेने का प्रमुख कारण बेहतर गुणवत्ता वाली खबरें पढ़ना है। ऑनलाइन समाचार के लिए भुगतान करने वाले 65 प्रतिशत अमेरिकी उत्तरदाताओं ने इस विकल्प को चुना। इंग्लैंड के 48 फीसदी और जर्मनी के 44 फीसदी उत्तरदाताओं ने इस विकल्प को चुना। दूसरा कारण था- अच्छी पत्रकारिता को वित्तपोषित करने में मदद करना। यह खासकर अमेरिका में अधिक देखा गया, जो राजनीतिक रूप से ध्रुवीकृत बाजार है। यहां 38 फीसदी समाचार ग्राहकों ने समाचार के लिए भुगतान करने का कारण अच्छी पत्रकारिता को मदद करना बताया।
शोधकर्ताओं ने हंगरी में ऐसे सवाल नहीं पूछे। लेकिन वहां भी इसी तरह की भावना के कारण नागरिकों द्वारा स्वतंत्र मीडिया को आर्थिक सहयोग करने का प्रचलन होगा। इसके अलावा, 444.hu जैसे मीडिया संस्थान की सदस्यता लेने का एक कारण यह भी हो सकता है कि जनता में सरकार के प्रति नाराजगी है और लोग स्वतंत्र पत्रकारिता की मदद करना चाहते हैं।
पीटर एर्डेली कहते हैं- “मुझे लगता है कि हमारे देश में जैसा माहौल है, उसमें किसी स्वतंत्र मीडिया संगठन की मदद करना भी एक राजनीतिक अभिव्यक्ति है। लेकिन ऐसी भावना के कारण कोई व्यक्ति आपको नियमित रूप से पैसे देता रहे, यह जरूरी नहीं है। उनमें मौजूद दान की भावना उपयोगी हो सकती है। लेकिन यदि आप पाठकों को नियमित रूप से अपने साथ बनाए रखना चाहते हैं, तो अच्छी खबरें देनी होगी। उन्हें ऐसी सामग्री देने की आवश्यकता है जिनका वे वास्तव में उपयोग कर सकें और लाभ उठा सकें। यह प्रारंभिक प्रकार की सफलता के लिए अच्छा है। लेकिन यदि आप उन्हें बनाए रखना चाहते हैं, तो उन सेवाओं और लाभों के साथ आने की जरूरत है, जा उनके लिए उपयोगी हों।”
4. बोलें और एकजुट रहें
रितू कपूर का एक महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि अन्य मीडिया संगठनों के साथ एकजुटता बनाए रखें। यदि कोई संस्था पहले से मौजूद है तो उसमें शामिल हों। यदि कोई साझा मंच नहीं है तो एक संस्था बना लें। यह समय एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने का नहीं, बल्कि एक साथ खड़े होने का है। इस तरह, यदि एक मीडिया संगठन या एक पत्रकार पर खतरा है, तो अन्य सारे लोग उनकी मदद के लिए जुटेंगे।
कोई अभियान चलाने के लिए समूह बनाना या उसमें शामिल होना भी उपयोगी है। पत्रकारों की बेहतर सुरक्षा करने वाले कानूनों को बढ़ावा देने के लिए Digipub India Foundation की स्थापना में ‘द क्विंट’ भी शामिल था। यह संगठन केवल डिजिटल मीडिया प्रकाशकों के लिए बनाया गया है।
ऐसी ही पहल के उदाहरण अन्य देशों में देखे जा सकते हैं। वेनेजुएला भी एक ऐसा देश है, जो लोकतंत्र के पतन की दिशा में आगे बढ़ रहा है। वहां भी पत्रकारों को कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। वहां पत्रकारों के एक समूह ने हाल ही में Alianza ProPeriodismo नामक समूह का गठन किया है। इसका मकसद देश में पत्रकारों के बीच आपसी संबंधों को बढ़ावा देने और स्वतंत्र पत्रकारिता की रक्षा करना है।
ग्वाटेमाला में भी यही हो रहा है। वहां पत्रकार आपस में साझेदारी कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप कई परियोजनाएं सामने आ रही हैं।
सार्वजनिक हित की जानकारी को गोपनीय रूप से साझा करने के लिए एक स्वतंत्र और सुरक्षित मंच Guatemala Leaks का गठन हुआ। आगामी आम चुनावों में दुष्प्रचार के खिलाफ एक सहयोगी तथ्य-जांच परियोजना La Linterna का भी निर्माण हुआ। देश में प्रेस के उत्पीड़न के खिलाफ विरोध करने के लिए एक संगठन बनाया गया। इसका नाम No Nos Callarán (वे हमें चुप नहीं कर सकते) रखा गया।
हंगरी और पोलैंड जैसे देश यूरोपीय संघ की सदस्यता के कारण अंतरराष्ट्रीय दबाव के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं। इन देशों के लिए धन और अन्य लाभों तक पहुंचने के लिए कानून के शासन और नागरिकों के मौलिक अधिकारों जैसे सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है। इसका मतलब यह है कि स्वतंत्र पत्रकार अपने संघर्षों के बारे में बोलकर अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। इसका उन देशों की घरेलू नीतियों पर प्रभाव पड़ने की अधिक संभावना है।
पीटर एर्डेली कहते हैं- “हमारे पास जो मुद्दे हैं, उन पर ध्यान देना और उनका प्रचार करना जरूरी है ताकि सरकार का उन पर कुछ ध्यान खींचा जा सके। चाहे वह सरकारी विज्ञापन की बात हो या दुष्प्रचार या सूचना तक पहुंच पर प्रतिबंध की बात हो। हालाँकि इससे मौजूदा नीतियों को बदला नहीं जा सकता है, फिर भी चीजों को कुछ हद रोकने और अधिक अपमानजनक चीजों को होने से रोक सकता है।”
5. हालात बदतर हो, तो देश छोड़ दो
यदि स्थिति बेहद खराब हो जाए, तो पत्रकार उस देश को छोड़ने का विकल्प चुन सकते हैं। संभव है, उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाए। यह एक गंभीर लेकिन दुखद और सामान्य परिघटना है। खासकर उन देशों में, जहां लोकतंत्र का पतन बढ़ने की प्रक्रिया जारी है। रितू कपूर कहती हैं- “देश के बाहर रहकर पत्रकार बिना किसी खतरे के सार्थक काम कर सकते हैं।”
रिपोर्टिंग करने के लिए पत्रकारों द्वारा अपना देश छोड़ने के उदाहरण लैटिन अमेरिका में काफी हैं। क्यूबा और निकारागुआ के भी कई पत्रकारों को निर्वासन के लिए मजबूर किया गया है। वर्ष 2022 में यूक्रेन पर चौतरफा आक्रमण शुरू होने के बाद कई रूसी स्वतंत्र पत्रकारों को भी देश छोड़ना पड़ा।
हालांकि इस विकल्प की कई सीमाएं है। जिस देश की आप रिपोर्ट कर रहे हैं, वहां नहीं होने पर जांच करना, जानकारी सत्यापित करना और स्रोतों से संपर्क करना कठिन हो जाता है।
शोधकर्ता लुइसा एस्तेर मुगाबो का सुझाव भी गौरतलब है। वह समकालीन निर्वासित पत्रकारिता पर अध्ययन कर रही हैं। उन्होंने हाल ही में एक सेमिनार में कहा कि विदेश से काम करने के लिए मजबूर पत्रकारों को देश के अंदर के नेटवर्क को प्राथमिकता देनी चाहिए। ऐसे संपर्कों पर भरोसा करना चाहिए, जो उनके द्वारा पहले से सत्यापित हों। जो संपर्क एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, उनका भी उपयोग करना चाहिए। यह अंततः आपकी और स्रोतों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
कानूनी बाधाओं का सामना करने वाले मीडिया संगठनों के लिए एक विकल्प है। अब भारतीय न्यूजरूम के खिलाफ आर्थिक अपराध के आरोप आम बात है। ऐसे मामले में भौतिक रूप से देश में रहते हुए विदेश में पंजीकरण करा सकते हैं। हालाँकि, इससे ‘विदेशी एजेंट’ होने का आरोप लग सकता है, जैसा कि हाल ही में रूस और अन्य देशों में हुआ ।
स्पष्ट है कि दुनिया भर में कई पत्रकारों को अपनी रिपोर्टिंग में बढ़ती बाधा, स्वतंत्रता पर खतरे और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है। हालाँकि, स्थिति को सीधे संबोधित करते हुए उत्पाद की गुणवत्ता और राजस्व संबंधी रणनीति लागू करके मीडिया संगठन जीवित रह सकते हैं। कुछ मामलों में शत्रुतापूर्ण वातावरण के बावजूद आगे बढ़ सकते हैं। अपेक्षाकृत अधिक स्थिर लोकतंत्र के पत्रकारों को इन मुद्दों पर रिपोर्ट करनी चाहिए। ऐसा करके वे कमजोर लोकतंत्र वाले देशों के पत्रकारों की मदद कर सकते हैं।
अतिरिक्त संसाधन
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मरीना अदामी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय स्थित रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म में डिजिटल पत्रकार के बतौर कार्यरत हैं। वह मूलतः इटली की रहने वाली हैं। उन्होंने ब्रूसेल्स में पोलिटिको यूरोप के लिए ब्रेकिंग न्यूज और लंदन में स्थानीय समाचारों संबंधी रिपोर्टिंग की है।