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खबर के लिए झूठ का सहारा लेना कितना उचित?

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दुनिया भर में समाचार माध्यमों के प्रति भरोसा कम हो रहा है। यह हमारे लिए काफी चिंताजनक है। इसलिए छद्म रिपोर्टिंग की प्रक्रिया में कोई भी ऐसा तरीका नहीं अपनाना चाहिए, जिससे मीडिया की विश्वसनीयता को और अधिक नुकसान हो। सोशल मीडिया के उदय साथ ही गलत सूचनाओं और कुप्रचार की समस्या काफी बढ़ गई है। हमें खबरों के प्रति भरोसा बढ़ाना है। खबरों की विश्वसनीयता काफी मायने रखती है। तथ्य और मनगढ़ंत बातों का फर्क हमें बताना होगा। सशक्त लोकतंत्र के लिए ऐसा करना जरूरी है।

अंडरकवर रिपोर्टिंग, डिसेप्शन एंड बिट्रेयल इन जर्नलिज्म (Undercover Reporting, Deception and Betrayal in Journalism) यह हमारी नई किताब है। इसमें हमने बताया है कि धोखेबाजी कभी पत्रकारों के लिए स्वीकार्य तरीका रहा है, अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में, कोई खबर निकालने के लिए लक्ष्य से झूठ बोलना उचित है, अथवा नहीं। संभव है कुछ बेहद खास परिस्थितियों में ऐसा करना नैतिक रूप से उचित हो। इसलिए पत्रकारों और नागरिकों के लिए हमने छह सूत्रीय चेकलिस्ट बनाई है। इसके जरिए आप यह जांच सकते हैं कि समाचार संकलन की प्रक्रिया में किसी धोखेबाजी या विश्वासघात का सहारा लिया गया है अथवा नहीं।

खबर निकालने के लिए झूठ बोलकर धोखेबाजी करना या नकली पहचान का उपयोग करना पत्रकारिता की एक प्रमुख नैतिक समस्या है। वेश बदलकर अंडरकवर रिपोर्टिंग के दौरान ऐसे नैतिक सवालों को समझना बेहद जरूरी है।

कई मामलों में ऐसा करना सामान्य लगता है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि पत्रकार जो करते हैं, उसमें यह अंतर्निहित है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक द जर्नलिस्ट एंड द मर्डरर (The Journalist and the Murderer) के शुरुआती पैराग्राफ में दिवंगत अमेरिकी लेखक और पत्रकार जेनेट मैल्कम लिखती हैं:

“समाचार संकलन के लिए किसी छद्म तरीके का उपयोग करने वाला पत्रकार अच्छी तरह जानता है कि ऐसा करना नैतिक रूप से अक्षम्य है। लेकिन लोगों का विश्वास जीतता है, और बिना पछतावे के उनके साथ विश्वासघात करता है।“

हमने कुछ केस स्टडीज तैयार की है। इनके जरिए समकालीन पत्रकारिता में मौजूद भ्रामक प्रथाओं की सीमाओं के साथ ही उनकी गंभीरता का पता चलता है। इनमें तीन केस स्टडीज में हाई-प्रोफाइल अंडरकवर ऑपरेशंस या धोखे का उपयोग किया गया है।

तीन केस स्टडीज

फेसबुक दुनिया भर में अपने उपयोगकर्ताओं का डेटा एकत्र करता है। कैंब्रिज एनालिटिका (Cambridge Analytica) द्वारा ऐसे 87 मिलियन उपयोगकर्ताओं के डेटा के उपयोग को लेकर गंभीर सवाल उठे। इन आंकड़ों का इस्तेमाल वर्ष 2016 में संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों में चुनावों को प्रभावित करने के लिए किया गया था।

अमेरिका के ‘नेशनल राइफल एसोसिएशन’ में अल जजीरा (Al Jazeera) की घुसपैठ भी ऐसा ही एक अन्य मामला है। वर्ष 2019 में ऑस्ट्रेलिया में ‘वन नेशन पार्टी’ के साथ इसे दोहराया गया।

तीसरा मामला रूपर्ट मर्डोक के न्यूज ऑफ द वर्ल्ड (News of the World newspaper in hacking their mobile phones) नामक अखबार से जुड़ा है। इसने ब्रिटेन में हजारों आम नागरिकों का मोबाइल फोन हैक करके धोखा दिया। पिछली शताब्दी में ब्रिटेन में पत्रकारों की नैतिक विफलता का शायद यह सबसे बड़ा उदाहरण है।

छद्म रिपोर्टिंग अथवा अंडरकवर तकनीकों का उपयोग करके पत्रकारिता करने संबंधी नैतिक पहलुओं का आकलन करने के लिए हमने यह छह सूत्रीय चेकलिस्ट बनाई है। इसमें छद्मवेश बनाना और किसी रूप में फंसाना भी शामिल है। यह चेकलिस्ट बनाने के लिए ऊपर बताई गई तीनों केस स्टडीज जैसे मामलों की जांच की है। साथ ही, हमने प्रमुख पत्रकारों के साथ साक्षात्कार किया। इसके अलावा, दो प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रकारों बिल कोवाच और टॉम रोसेनस्टील  के काम को भी हमने आधार बनाया है।

अपनी छहसूत्रीय चेकलिस्ट के आधार पर हमने निष्कर्ष निकाला कि ‘कैंब्रिज एनालिटिका’ के खिलाफ कार्रवाई नैतिक रूप से उचित थी। इसने जनता को महत्वपूर्ण सच बताया, जिसे अन्यथा हम नहीं जान पाते। इसमें सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि ‘कैंब्रिज एनालिटिका’ ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में हस्तक्षेप किया था। यह लोकतंत्र के लिए प्रत्यक्ष खतरा था।

हम यह भी पाते हैं कि अमेरिका के ‘नेशनल राइफल एसोसिएशन’ में ‘अल जजीरा’  की घुसपैठ तथा ऑस्ट्रेलिया में ‘वन नेशन पार्टी’ के खिलाफ अभियान भी उचित नहीं थे। ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ द्वारा ब्रिटेन में मशहूर हस्तियों और आम नागरिकों की फोन हैकिंग जैसे मामलों को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। इसमें हत्या की शिकार स्कूली छात्रा मिली डाउलर की फोन हैकिंग जैसे मामले भी शामिल हैं।

छह सूत्रीय चेकलिस्ट:

  1. क्या छद्म रिपोर्टिंग से मिली जानकारी जनहित के लिए पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण है?
  2. क्या छद्म रिपोर्टिंग का सहारा लेने से पहले अन्य तरीकों पर विचार किया गया और क्या खबर निकालने का यही एकमात्र तरीका था?
  3. क्या पाठकों को बताया गया है कि इस खबर के लिए किस तरह छद्म रिपोर्टिंग का सहारा लिया गया और इसके कारणों की व्याख्या की गई?
  4. क्या यह संदेह करने के लिए उचित आधार है कि जिनके खिलाफ अंडरकवर रिपोर्टिंग की गई है, वे लोग जनहित के विपरीत गतिविधि में संलग्न थे?
  5. क्या जोखिम की रणनीति के साथ यह ऑपरेशन किया गया था ताकि सक्षम अधिकारियों द्वारा औपचारिक जांच को नुकसान न हो?
  6. क्या जनहित के लिए पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण होने की जांच करके नुकसान या गलत काम का एक वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया गया?

धोखे और विश्वासघात के अन्य पहलुओं को देखने के लिए हमने एक अन्य केस स्टडी पर विचार भी विचार किया। यह एक भ्रामक आचरण का मामला है, जिसे ‘हाइब्रिड जर्नलिज्म’ कहा जा रहा है। इसमें ‘विज्ञापन’ को ‘समाचार’ की तरह प्रस्तुत किया जाता है।

इसके लिए ‘ब्रांडेड कंटेंट’ या ‘स्पोन्सर्ड कंटेंट’ या ‘नेटिव एडवरटाइजिंग’ जैसे कई नामों का उपयोग होता है। एक नया शब्द आया है- ‘फ्रॉम अवर पार्टनर्स’। कुछ प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान ऐसे भ्रामक विज्ञापन के लिए अलग टाइपोग्राफी का उपयोग करते हैं ताकि उसे समाचार से अलग दिखा सकें। लेकिन कुछ मीडिया संस्थान ऐसा फर्क दिखाने की जरूरत भी नहीं समझते।

पत्रकारिता से जुड़े रोजमर्रा के कार्यों में कई अन्य भ्रामक तरीके भी शामिल हैं। जैसे- पत्रकार के बतौर अपनी पहचान स्पष्ट नहीं करना, किसी व्यक्ति के साथ प्रेम करने का दिखावा करना, किसी व्यक्ति के हितों की पूर्ति के लिए असत्य जानकारी प्रकाशित करना, किसी व्यक्ति के सामने माइक्रोफोन या कैमरा लगाकर उसकी जानकारी के बगैर रिकॉर्ड करना इत्यादि।

ऐसे मामलों के अध्ययन से पता चलता है कि पत्रकारिता में धोखा और विश्वासघात के अनगिनत रूप हैं। इनमें कई मामले नैतिक रूप से पूरी तरह गलत होते हैं। ऐसे तरीके पत्रकारिता के अभ्यास में अंतर्निहित नहीं हैं। वे उचित हैं या नहीं, इसकी बारीकी से जांच होनी चाहिए, क्योंकि मीडिया के प्रति जनता का भरोसा दांव पर लगा है।

यह लेख ‘द कन्वर्सेशन’ में प्रकाशित हुआ था। यहां अनुमति लेकर पुनर्मुद्रित किया गया है।

अतिरिक्त संसाधन

GIJN’s Guide to Undercover Reporting

Becoming a Butcher: Lessons From Working Undercover

How They Did It: Feminist Investigators Go Undercover to Expose Abortion Misinformation


एंड्रिया कार्सन ला ट्रोब विश्वविद्यालय में राजनीति, मीडिया और दर्शनशास्त्र विभाग में राजनीतिक संचार की प्रोफेसर हैं। वह खोजी पत्रकारिता, लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका, राजनीतिक संचार और राजनीति और जेंडर जैसे विषयों पर शोध करती हैं।

 

डेनिस मुलर सेंटर फॉर एडवांसिंग जर्नलिज्म, मेलबर्न यूनिवर्सिटी में सीनियर रिसर्च फेलो हैं। उन्होंने आरएमआईटी विश्वविद्यालय में अनुसंधान पद्धति का अध्यापन भी किया है। वह कम्युनिकेशन लॉ सेंटर में पत्रकारों को मानहानि कानून भी पढ़ाते हैं।

 

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