Nalbari,,Assam,,India.,18,April,,2019.,An,Indian,Voter,Casts
Nalbari,,Assam,,India.,18,April,,2019.,An,Indian,Voter,Casts

Hundreds of millions of voters in India will turn out for the nation's parliamentary elections in 2024. Image: Shutterstock

आलेख

विषय

भारत में खोजी पत्रकारिता : चुनावी वर्ष में छोटे स्वतंत्र मीडिया संगठनों का बड़ा प्रभाव

इस लेख को पढ़ें

(भारत के लिए वर्ष 2024 के आम चुनाव काफी महत्वपूर्ण हैं। इस दौरान कुछ स्वतंत्र एवं लघु मीडिया संस्थानों ने खोजी पत्रकारिता तथा हाशिये के लोगों को आवाज प्रदान करने की दिशा में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इन विषयों पर केंद्रित आलेख।)

नौसेना से सेवानिवृत्त कमोडोर लोकेश बत्रा एक प्रमुख आरटीआई कार्यकर्ता हैं। वर्ष 2019 में उन्होंने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के माध्यम से ऐसे काफी दस्तावेज निकाले, जिनसे राजनीतिक फंडिंग की सरकारी योजना में गड़बड़ियों का पता चलता था। उन्होंने ऐसे दस्तावेज पत्रकार नितिन सेठी को सौंप दिए।

भारत में वर्ष 2018 में ‘इलेक्टोरल बॉन्ड‘ योजना शुरू की गई थी। इसके जरिए कोई भी व्यक्ति अथवा कॉरपोरेट समूह किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम या गुप्त रूप से चंदा दे सकता था। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसे नकदी और भ्रष्टाचार को खत्म करने वाले एक प्रमुख सुधार के रूप में प्रस्तुत किया था।

नितिन सेठी ने इन दस्तावेज़ों का उपयोग करके छह रिपोर्ट की श्रृंखला बनाई। इससे पता चला कि कैसे इस विवादास्पद योजना के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक की सलाह की पूर्णतया अनदेखी कर दी गई। किस तरह चुनाव से पहले अवैध रूप से ‘इलेक्टोरल बॉन्ड‘ बेचे गए। इन मामलों में विभिन्न प्रकार के सरकारी झूठों का पर्दाफाश हुआ। यह जांच रिपोर्ट पहली बार ‘हफ़िंगटन पोस्ट इंडिया‘ में छपी। इसके बाद, ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव‘ नामक एक नवोदित समूह, जो भारत में ग्लोबल इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज़्म नेटवर्क का सदस्य है, के माध्यम से विभिन्न भाषाओं में कई न्यूज़रूम के साथ साझेदारी में प्रकाशित किया गया।

फरवरी 2024 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘इलेक्टोरल बॉन्ड‘ योजना को रद्द कर दिया। साथ ही, मार्च में आदेश दिया कि ‘इलेक्टोरल बॉन्ड‘ की खरीद और पार्टियों को देने संबंधी पूरी जानकारी आम नागरिकों के लिए सार्वजनिक की जाए। जब चंदा देने वाली कंपनियों के नाम और राशि के साथ नए डेटा सामने आए तो न्यूज़रूम में खबरों की आंधी आ गई।

‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव‘ नामक सात सदस्यीय न्यूज़रूम के संस्थापक संपादक नितिन सेठी पूरी रात अपने सहयोगियों के साथ जागते हुए डेटा की जांच-पड़ताल करते रहे। अगले 48 घंटों के भीतर उन्होंने एक दर्जन से अधिक कहानियां तैयार कीं। इनमें बताया गया कि कैसे कंपनियों ने अपने घोषित मुनाफे से भी अधिक धनराशि दान कर दी थी। सबसे अधिक चंदा देने वाली एक कंपनी भारत के एक शीर्ष समूह से जुड़ी थी। नितिन सेठी कहते हैं, “हमारे लिए यह काफी व्यस्त समय रहा है। लेकिन यह वर्षों के काम को किसी नतीजे में बदलने का वक्त था।“

‘इलेक्टोरल बॉन्ड‘ की बड़ी खबर

वर्ष 2024 में भारत का आम चुनाव है जिसके माध्यम से केंद्र की सरकार चुनी जा रही है। इससे ठीक पहले ‘इलेक्टोरल बॉन्ड‘ घोटाले का खुलासा हो गया। इसके कारण मीडिया के लिए राजनीतिक फंडिंग संबंधी खबरें काफी महत्वपूर्ण हो गईं। देश भर में 19 अप्रैल से पहली जून के तक करोड़ों भारतीय मतदाता यह फैसला करने के लिए मतदान करेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा को लगातार तीसरी बार सत्ता में रहना है, अथवा नहीं।

भारत में विभिन्न भाषाओं में लगभग 21,000 पंजीकृत समाचारपत्र और लगभग 400 समाचार चैनल हैं। पुराने एवं स्थापित मीडिया संस्थानों पर सत्ता के आधिपत्य जैसी स्थिति हावी है। लेकिन हाल के दिनों में खोजपूर्ण कहानियां आम तौर पर छोटे डिजिटल न्यूज़ रूम से सामने आई हैं। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव, न्यूज लॉन्ड्री (Newslaundry), स्क्रॉल (Scroll), द क्विंट (The Quint), द न्यूज़ मिनट ( The News Minute) इत्यादि मीडिया संगठन काफी चुनौतीपूर्ण और प्रभावशाली रिपोर्टिंग करने के तरीके ढूंढ रहे हैं।

‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स‘ (सीपीजे) के भारतीय प्रतिनिधि कुणाल मजूमदार बताते हैं- “बड़े मीडिया संगठन भारी सरकारी दबाव में हैं क्योंकि भारत सरकार उनके लिए सबसे बड़े विज्ञापनदाताओं में से एक है। मीडिया का व्यवसाय मॉडल प्रत्यक्षतः सरकार के माध्यम से या परोक्ष रूप से निगमों के माध्यम से विज्ञापन पर निर्भर है। दूसरा कारक नियामक ढांचा है। सभी बड़े अखबारों और समाचार चैनलों को लाइसेंस की जरूरत होती है। उन्हें नियमित रूप से नवीनीकृत करना होता है। लेकिन इन चीजों से डिजिटल मीडिया कम प्रभावित है क्योंकि इस समय उनके लिए ऐसा कोई नियामक ढांचा नहीं है।“

‘रिपोर्टर्स कलेक्टिव‘ में प्रति माह औसतन दो कहानियां प्रकाशित होती हैं। नितिन सेठी कहते हैं- “कुछ बड़े और पुराने राष्ट्रीय दैनिक अखबारों ने केंद्र सरकार को जवाबदेह ठहराना बंद कर दिया है। जबकि उनके पास क्षमता और संसाधन हैं। हम खराब प्रशासन के कारण पीड़ित लोगों को देखने तक सीमित रहने के बजाय शक्तिशाली लोगों को जवाबदेह ठहराने पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं।“

ऐसी समझ के तहत ‘रिपोर्टर्स कलेक्टिव‘ ने कोयला नीलामी में व्यापक अनियमितताओं, पर्यावरण उल्लंघनों और कोविड-19 के कुप्रबंधन जैसे मामलों पर महत्वपूर्ण खबरें प्रकाशित कीं। क्षेत्रीय मीडिया संगठनों के साथ साझेदारी में हिंदी, तमिल और ओडिया सहित कई भारतीय भाषाओं में भी अपनी कहानियां प्रकाशित कराई जाती हैं। क्षेत्रीय प्रकाशनों को उनके राज्यों के बाहर भी रिपोर्टिंग की सुविधा देकर एक बड़ी पाठक संख्या की खबरों की पहुंच को सुनिश्चित किया जाता है।

‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव‘ में पत्रकार फुरकान अमीन, श्रीगिरीश जलिहाल और तपस्या (बाएं से दाएं)। इमेज सौजन्य: रिपोर्टर्स कलेक्टिव

साझेदारी के जरिए प्रभावी रिपोर्टिंग

खोजी पत्रकारिता के लिए मीडिया संगठनों की साझोदारी एक शानदार तरीका है। भारत में भी स्वतंत्र न्यूजरूम ऐसा करके अपनी क्षमता बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। न्यूज लॉन्ड्री, द न्यूज़ मिनट और स्क्रॉल ने इलेक्टोरल बॉन्ड प्रोजेक्ट पर खोजी पत्रकारिता के लिए हाथ मिलाया है।

स्क्रॉल की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा कहती हैं- “जब यह स्पष्ट हो गया कि इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा जल्द ही सार्वजनिक होगा, तो हमने इसकी तैयारी शुरू कर दी। लेकिन इस डेटा की मात्रा बहुत बड़ी और भारी होने की संभावना थी। मैंने सोचा कि हमारी छोटी टीम भी उस काम को दोहराएगी, जो काम अन्य मीडिया संगठनों की करेंगी। लेकिन अगर छोटे न्यूज़रूम एक साथ मिलकर काम करें, तो आसानी होगी। हम इलेक्टोरल बॉन्ड की सूची को विभाजित कर लें तो पूरे डेटा की जांच तेजी से करना संभव होगा।“

इस तरह तीनों समाचार कक्ष एक साथ आए। इन्हें स्वतंत्र पत्रकारों के एक समूह का भी सहयोग मिला। दवा गुणवत्ता परीक्षण में विफल रहने वाली सात फार्मास्युटिकल कंपनियों से जुड़े मामलों पर बड़ी खबरें बनीं। इन कंपनियों ने काफी इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदकर राजनीतिक चंदा दिया। इनमें से एक समूह ने 600 करोड़ रुपये (लगभग 72 मिलियन अमेरिकी डॉलर) मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे। जबकि उस कंपनी के खिलाफ जांच चल रही थी

यह डेटा सामने आने से पहले ही, फरवरी 2024 में ‘न्यूजलॉन्ड्री‘ और ‘द न्यूज़ मिनट‘ की एक संयुक्त जांच में एक चिंताजनक पैटर्न सामने आया था। जिन कंपनियों के खिलाफ कानून प्रवर्तन एजेंसियों की कार्रवाई चल रही थी, उन्होंने तत्काल सत्तारूढ़ पार्टी को मोटा चंदा दिया था। इन एजेंसियों को सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा नियंत्रित किया जाता है। जांच के अनुसार, 2018 और 2023 के बीच भाजपा को 330 करोड़ रुपये (लगभग 39.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर) से अधिक का दान देने वाली कम से कम 30 कंपनियों को इसी अवधि में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का सामना करना पड़ा। जिन कंपनियों ने पहले दान दिया था और फिर नहीं दिया था, उन पर छापे पड़ने के बाद उन्होंने फिर से दान दिया। छापे के बाद दूसरों ने अक्सर अपनी दान राशि बढ़ा दी।

इंटरव्यू लेते हुए ‘न्यूज लॉन्ड्री‘ के पत्रकार प्रतीक गोयल (दाएं)। इमेज सौजन्य: न्यूजलॉन्ड्री

यह खबर प्रकाशित होने के बाद विपक्ष के एक प्रमुख नेता ने दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की। अन्य मीडिया संस्थानों ने भी इस खबर का फॉलो-अप करना शुरू कर दिया। इस रिपोर्टिंग का नेतृत्व करने वाले न्यूज लॉन्ड्री के सहायक संपादक प्रतीक गोयल कहते हैं- “हमारे इन खुलासों के कारण काफ़ी हंगामा हुआ।“

चार खबरों की इस श्रृंखला को पूरा करने में लगभग तीन महीने लगे। प्रतीक गोयल बताते हैं- “कोई एक अकेला रिपोर्टर भी इस तरह की खबर लिख सकता है। लेकिन एक टीम का होना हमेशा बेहतर होता है। दरअसल इसमें बहुत समय लगता है। आपको लंबे समय तक काम करना पड़ता है। सभी दस्तावेज़ों की जाच-पड़ताल करने, आंकड़ों की गणना करने के बाद आप किसी गलती की गुंजाइश नहीं छोड़ते। कभी-कभी आप इसमें बहुत गहराई तक चले जाते हैं। इसके विविध पहलुओं को गहराई से समझने के लिए एक अलग दृष्टिकोण वाले किसी व्यक्ति की आवश्यकता होती है।“

जांच में यह पता लगाया गया कि किसी कंपनी ने सत्ताधारी पार्टी को चंदा कब दिया, और उसके खिलाफ छापा कब मारा गया था। प्रतीक गोयल कहते हैं- “अन्य कई राजनीतिक दलों को भी चंदा मिला। लेकिन बाकी पार्टियों की तुलना में बीजेपी को कहीं ज्यादा फायदा हुआ।“

राजनीतिक दलों को फंडिंग संबंधी डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध था। भारत का चुनाव आयोग पार्टियों को मिलने वाले दान और उनके व्यय रिपोर्ट की जानकारी नियमित रूप से प्रकाशित करता है। हालांकि इससे पहले किसी ने वास्तव में इसकी गहराई से खोज नहीं की थी।

‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव‘ में भी अक्सर ऐसी कहानियां आती हैं। नितिन सेठी कहते हैं- “बहुत सारे सार्वजनिक दस्तावेज हैं, जिनसे पता चलता है कि हमें कहां देखना है और क्या प्रश्न पूछना है और कभी-कभी यह आपको पूरी कहानियां भी प्रदान करता है। सूचना का अधिकार के तहत सूचना के लिए अनुरोध दाखिल करना भी हमारी टूलकिट का हिस्सा है।“

‘बूम‘ एक ऐसा ऑनलाइन मीडिया संस्थान है, जो तथ्य-जांच पर केंद्रित है। इसने फेसबुक विज्ञापन लाइब्रेरी का विश्लेषण करते हुए एक जांच की। इससे पता चला कि एक छद्म भाजपा समर्थक पेज ने अल्पसंख्यकों और विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने वाले भ्रामक और विभाजनकारी विज्ञापनों पर चार महीनों में दो करोड़ रुपये (240,000 अमेरिकी डॉलर) खर्च किए थे।

बूम के पत्रकार इन दिनों राजनीति, धन, प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया के बीच उलझे संबंधों को उजागर कर रहे हैं। बूम की वरिष्ठ संपादक एड्रिजा बोस कहती हैं- “यह पहली बार है कि चुनाव व्यावहारिक रूप से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लड़ा जा रहा है। पहले व्हाट्सएप ज्यादा प्रचलित था। लेकिन अब यूट्यूब और इंस्टाग्राम का अधिक उपयोग हो रहा है।“ एड्रिजा बोस बूम में ‘डिकोड‘ टीम का भी नेतृत्व करती हैं, जिसमें समाज और प्रौद्योगिकी संबंधी विषय आते हैं।

बूम की Viral For Votes सीरीज़ काफी लोकप्रिय है। इसकी शुरुआत में बताया गया कि चुनाव प्रचार करने अथवा किसी पार्टी की उपलब्धियां गिनाने के लिए प्रभावशाली लोगों का उपयोग किस तरह किया जा रहा है। एक फीचर में बताया गया कि कैसे एक 12 वर्ष का बालक एक शक्तिशाली क्षेत्रीय नेता के लिए प्रचार कर रहा है। एड्रिजा बोस कहती हैं- “सिर्फ एक नहीं बल्कि हर राजनीतिक दल ऐसा कर रहा है।“ समस्या यह है कि अधिकांश निर्माता अपनी संबद्धताओं को प्रकट नहीं करते हैं। धन के लेन-देन पर नज़र रखना भी मुश्किल है।

‘बूम‘ की एक रिपोर्ट के अनुसार राजनीतिक दल अपने प्रचार अभियानों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग कर रहे हैं। इसमें वॉयस क्लोनिंग और फेस स्वैपिंग शामिल है। एड्रिजा बोस कहती हैं- “हम यह जानना चाहते हैं कि राजनीतिक दल किस तरह एआई का उपयोग कर रहे हैं और उस पर एआई का लेबल लगने से बचाव का क्या तरीका आजमा रहे है।“ इसका मतलब तकनीकी दिग्गजों की अपारदर्शी और असंगत नीतियों पर रिपोर्टिंग करना भी है

हाशिये के समुदायों को स्वर देना

छोटे समाचार संगठन जातीय उत्पीड़न के अनदेखे परिप्रेक्ष्य पर भी प्रकाश डाल रहे हैं। दलित परिवार की पहली पीढ़ी की शिक्षार्थी मीना कोटवाल ने हाशिए पर रहने वाले दलित और आदिवासी समूहों की खबरें सामने लाने के लिए वर्ष 2021 में ‘द मूकनायक‘ की शुरुआत की। ‘द मूकनायक‘ के पत्रकार राजा कहते हैं- “इन आवाज़ों और इन कहानियों को मुख्यधारा के मीडिया में जगह नहीं मिलती है।“ राजा को केवल एक ही नाम से जाना जाता है।

‘द मूकनायक‘ की 16 सदस्यीय टीम अंग्रेजी और हिंदी में इसका प्रकाशन करती है। “दलित खबरों में तभी आते हैं, जब किसी भीषण अपराध का शिकार हो, या फिर कोई बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम हो।“

इस वर्ष मूकनायक का कवरेज हाशिए पर मौजूद महिलाओं और लोकसभा की ‘आरक्षित‘ सीट वाले क्षेत्रों के मुद्दों पर केंद्रित होगा। ऐसी संसदीय सीटें, जो हाशिए पर रहने वाले उम्मीदवारों के लिए आरक्षित की गई हैं। राजा कहते हैं- “इन क्षेत्रों के लोगों की समस्याएं क्या हैं? इन निर्वाचन क्षेत्रों के लिए धन का उपयोग कैसे किया गया है? पिछले चुनाव के बाद से पिछले पाँच वर्षों में यहां क्या हुआ?” यह साइट ‘न्यूज लॉन्ड्री‘ की कहानियों को भी पुनः प्रकाशित करती है।

ऐसे काम करने में कई प्रकार की चुनौतियाँ आती हैं। ट्रोलिंग, पुलिस कार्रवाई, मानहानि के मामले इत्यादि तथा अन्य भी बहुत कुछ। न्यूज लॉन्ड्री को दो बार आयकर ‘सर्वेक्षण‘ का सामना करना पड़ा। ‘द वायर‘ और ‘स्क्रॉल‘ के संपादकों को पुलिस में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (प्राथमिकी) का सामना करना पड़ा।

‘द मूकनायक‘ की संस्थापक संपादक मीना कोटवाल, दिल्ली स्थित न्यूज़ रूम में। इमेज सौजन्य: ‘द मूकनायक‘

ऐसी खबरें भी सामने आती हैं कि बीजेपी सरकार ने पत्रकारों की हैकिंग और जासूसी कराई है। कुछ क्षेत्रीय दलों द्वारा भी पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला किया गया है। जिन माफियाओं या आपराधिक गिरोहों को अपने हितों को ख़तरा लगता है, उन्होंने भी पत्रकारों पर हमला किया है।

सीपीजे के भारतीय प्रतिनिधि कुणाल मजुमदार कहते हैं- “भारत में खोजी पत्रकारिता लगभग असंभव होती जा रही है। सरकारी और गैर-सरकारी दोनों प्रकार की ताकतें प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति असहिष्णु हो रही हैं।“ उल्लेखनीय है कि विश्व के 180 देशों के प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत वर्ष 2022 में 150वें स्थान पर था। लेकिन वर्ष 2023 में इससे भी नीचे गिरकर 161वें स्थान पर आ गया

संसाधनों का इंतजाम करना भी काफी व्यावहारिक चुनौती है। ‘द मूकनायक‘ अपने काम के लिए क्राउड फंडिंग, फ़ेलोशिप और अनुदान पर निर्भर है। ‘न्यूज लॉन्ड्री‘ और ‘द न्यूज़ मिनट‘ के पास सदस्यता लेने का विकल्प है। स्क्रॉल पढ़ने के लिए मुफ़्त है। लेकिन इसमें अतिरिक्त सुविधाओं के साथ सदस्यता विकल्प भी है। ‘द वायर‘ मुख्यतः दान पर निर्भर है।

स्क्रॉल की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा कहती हैं, “खोजी रिपोर्टिंग के काम में नियमित रिपोर्टिंग की अपेक्षा ज्यादा समय और पैसा लगता है। इसलिए छोटे समाचार संगठनों के लिए यह कठिन है, जो समय और संसाधन के लिए वित्तीय दबाव का सामना कर रहे हैं। इसके बावजूद आप देखेंगे कि सबसे कठिन पत्रकारिता ऐसे छोटे और स्वतंत्र न्यूज़ रूम द्वारा की जा रही है। यदि पाठक ऐसी जनहित की पत्रकारिता को महत्व देते हैं, तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी चाहिए।”


भव्या डोरे हैदराबाद निवासी पत्रकार हैं। उन्होंने कारवां, क्वार्ट्ज, वायर्ड, द गार्जियन और बीबीसी के लिए लिखा है। अपराध और सामाजिक न्याय विषय पर उनका फोकस है। वह आईडब्ल्यूएमएफ में किम वॉल ग्रांटी रही हैं। भारत में कोविड-19 महामारी की जांच पर जीआइजेएन के लिए उनकी स्टोरी यहां देख सकते हैं।

अनुवाद : डॉ. विष्णु राजगढ़िया

क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेंस के तहत हमारे लेखों को निःशुल्क, ऑनलाइन या प्रिंट माध्यम में पुनः प्रकाशित किया जा सकता है।

आलेख पुनर्प्रकाशित करें


Material from GIJN’s website is generally available for republication under a Creative Commons Attribution-NonCommercial 4.0 International license. Images usually are published under a different license, so we advise you to use alternatives or contact us regarding permission. Here are our full terms for republication. You must credit the author, link to the original story, and name GIJN as the first publisher. For any queries or to send us a courtesy republication note, write to hello@gijn.org.

अगला पढ़ें

समाचार और विश्लेषण

जब सरकारें प्रेस के खिलाफ हों तब पत्रकार क्या करें: एक संपादक के सुझाव

जिन देशों में प्रेस की आज़ादी पर खतरा बढ़ रहा है, वहां के पत्रकारों के साथ काम करने में भी मदद मिल सकती है। पत्रकारों को स्थानीय या अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठनों के साथ गठबंधन बनाकर काम करने की सलाह देते हुए उन्होंने कहा- “आप जिन भौगोलिक सीमाओं तथा अन्य चुनौतियों का सामना कर रहे हों, उन्हें दरकिनार करने का प्रयास करें।“

Invetigative Agenda for Climate Change Journalism

जलवायु समाचार और विश्लेषण

जलवायु परिवर्तन पत्रकारिता के लिए खोजी एजेंडा

दुनिया भर में हजारों पत्रकार जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं। ऐसी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के लिए कई नेटवर्क स्थापित किए गए हैं। ऐसी पत्रकारिता जनसामान्य को सूचित करने और जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण है। यह सत्ता में बैठे उन लोगों को चुनौती देने के लिए भी जरूरी है, जो पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं, लेकिन वास्तव में पृथ्वी को जला रहे हैं। ऐसी सत्ता की जवाबदेही सुनिश्चित करना ही खोजी पत्रकारिता का मौलिक कार्य है।

अवार्ड समाचार और विश्लेषण

साल 2023 की भारत की कुछ सर्वश्रेष्ठ खोजी खबरें: जीआईजेएन एडिटर्स पिक

भारत के सीमावर्ती राज्यों सिक्किम, लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में चीनी घुसपैठ को भारत सरकार द्वारा बार-बार नकारा गया है। स्थानीय रिपोर्टों और विपक्ष के दावों के बावजूद, देश का मीडिया भी सीमा पार चीनी सैन्य गांवों के निर्माण की वास्तविकता को रिपोर्ट करने से कतरा रहा है। हालाँकि, भारत के प्रमुख मीडिया हाउस इंडिया टुडे की खोजी रिपोर्टिंग ने भारत सरकार के झूठे दावों को उजागर कर दिया।

Best Investigative Stories from India 2024

वर्ष 2024 की भारत से सर्वश्रेष्ठ खोजी खबरें

प्रेस की स्वतंत्रता में अभूतपूर्व गिरावट आई। इस दौरान अनगिनत पत्रकारों को उत्पीड़न अथवा दमनकारी कानूनों का शिकार होना पड़ा। इसके बावजूद वर्ष 2024 में भारत के खोजी पत्रकारों ने अनगिनत शक्तिशाली खोजी खबरें पेश की हैं।