Illustration: Marcelle Louw for GIJN
खोजी पत्रकारों के लिए चुनाव गाइड: चौथा अध्याय – राजनीतिक दुष्प्रचार की जांच
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चुनाव कवरेज में इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग पर जीआईजेएन की गाइड: परिचय
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खोजी पत्रकारों के लिए गाइड: चुनावी रिपोर्टिंग के नए उपकरण- पहला अध्याय
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खोजी पत्रकारों के लिए चुनाव गाइड -तीसरा अध्याय: उम्मीदवारों की जांच
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खोजी पत्रकारों के लिए चुनाव गाइड: चौथा अध्याय – राजनीतिक दुष्प्रचार की जांच
चुनावों में सोशल मीडिया बहुत उपयोगी है। यह राजनीतिक संदेश देने का शक्तिशाली माध्यम बन गया है। सोशल मीडिया का सकारात्मक प्रभाव है। जैसे, युवाओं को मतदान के लिए प्रेरित करना। जो लोग विभिन्न कारणों से वोट नहीं दे पाते, उन्हें भी वोट देने की प्रेरणा मिलती है। लेकिन सोशल मीडिया के कई नकारात्मक प्रभाव भी हैं। चुनाव में किसी उम्मीदवार के बारे में अफवाह एवं गलत सूचनाएं फैलाने, भ्रामक विज्ञापन और दुष्प्रचार अभियान चलाने जैसी प्रवृतियां बढ़ती जा रही है।
दूसरी ओर, सरकार द्वारा संचालित मीडिया और पक्षपातपूर्ण धंधेबाज लोग भी चुनावों को प्रभावित करते हैं। इनके जरिए तानाशाहों का भरपूर प्रचार किया जाता है। इन्हें तानाशाहों का ‘प्राथमिक एम्पलीफायर‘ कहा जा सकता है। अफ्रीका और भारत जैसे देशों में झूठ फैलाने के लिए विशाल मैसेजिंग नेटवर्क का निर्माण हुआ है। तानाशाह नेताओं के सहयोगी पूंजीपतियों के निजी स्वामित्व वाले टीवी चैनलों का मीडिया पर एकाधिकार बढ़ रहा है। इसके जरिए सर्बिया और पोलैंड जैसे देशों में विपक्षी आवाजों को दबा दिया गया है।
अब डेटा साझाकरण और ट्रैकिंग के नए तरीके आ गए हैं। इनके जरिए अब किसी समूह विशेष को केंद्रित करके ऑनलाइन विज्ञापन चलाए जा सकते हैं। ऐसे अभियान को जनसांख्यिकीय उपसमूह के लिए लक्षित करना संभव है। ग्लोबल फैक्ट-चेकिंग एनजीओ ‘फर्स्ट ड्राफ्ट न्यूज‘ के अनुसार- “राजनीतिक विज्ञापन में हस्तक्षेप न करने का दृष्टिकोण है। कानून भी काफी कमजोर हैं। इसके कारण राजनीतिक अभियानों में जवाबदेही की कमी है। झूठ और दुष्प्रचार का काफी प्रसार हुआ है।“
ऐसे में मतदाताओं को सच बताने का मुख्य दायित्व मुख्य धारा के मीडिया, खासकर प्रिंट मीडिया पर आता है।
अब फैक्ट-चेक संगठनों की भूमिका काफी बढ़ गई है। ऐसे संगठन ऑनलाइन झूठ को उजागर करने में सराहनीय काम करते हैं। छेड़छाड़ की गई फोटो, वीडियो इत्यादि का सच बताते हैं। खोजी पत्रकारों की भूमिका ऐसे कुप्रचार के जिम्मेवार लोगों उजागर करना है। चुनावों के दौरान पत्रकारों से अपेक्षाएं काफी बढ़ जाती हैं। वे चुनाव के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्नों को उजागर करने के प्राथमिक स्रोत हैं। जैसे, राजनीतिक संदेश को ऑनलाइन कौन चला रहा है? उम्मीदवार किन मतदाताओं के बीच अपना संदेश पहुंचा रहे हैं? उम्मीदवारों के पास धन कहाँ से आता है?
स्थापित लोकतांत्रिक देशों में गलत सूचना अभियानों के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है। ऐसे कुप्रचार के कारण लोकतंत्र पर संकट देखा जा रहा है। ऐसे में पत्रकारों पर दायित्व काफी बढ़ जाता है।
मियामी हेराल्ड की खोजी पत्रकार सारा ब्लास्की कहती हैं- “लोकतंत्र काफी संवेदनशील व्यवस्था है। इसकी रक्षा करने के लिए निरंतर प्रयास जरूरी हैं। इसलिए अपने देश के चुनावों को भी आप ऐसे कवर करें, जैसे कि आप एक विदेशी संवाददाता हैं। आप हर चीज को व्यापक नजरिए से देखकर रिपोर्टिंग करें।”
खोजी पत्रकारों के लिए चुनाव गाइड का यह अध्याय राजनीतिक बहसों, विज्ञापनों और दुष्प्रचार पर केंद्रित है। यहां हम इन विषयों को ऑनलाइन ट्रैक करने के लिए उपयोगी तकनीकों की जानकारी देंगे। दुनिया के कुछ प्रमुख मीडिया विशेषज्ञों के साक्षात्कार के आधार पर हम चुनाव अभियानों के स्रोतों को खोजने के लिए तरीके भी बताएंगे। हमने डर्टी ट्रिक्स की एक सूची भी बनाई है। पत्रकारों को इस पर ध्यान देना चाहिए। इन चीजों के पीछे अपराधियों को उजागर करने तथा संबंधित कानूनों के बारे में भी इस अध्याय में बताया गया है।
दो शब्दों पर विशेष ध्यान दें। ‘मिस-इन्फोर्मेशन‘ और ‘डिस-इन्फोर्मेशन‘ – इन दोनों का फर्क पहले ही अच्छी तरह समझ लें। ‘मिस-इन्फोर्मेशन‘ का मतलब ‘गलत सूचना‘ है। यह कोई झूठी जानकारी है। भले ही इसके पीछे गुमराह करने का इरादा न हो। जबकि ‘डिस-इन्फोर्मेशन‘ का मतलब ‘दुष्प्रचार‘ या ‘कुप्रचार‘ है। यह जानबूझकर भ्रामक या पक्षपातपूर्ण जानकारी फैलाना है। यह हेराफेरी करके, किसी बात को तोड़-मरोड़कर किया गया कुप्रचार है। इसमें किसी इमेज, वीडियो इत्यादि को छेड़छाड़ कर पेश करना जैसे गंदे तरीके भी शामिल हैं।
चुनावी रिपोर्टिंग के दौरान किन संदेशों पर ध्यान दें?
‘फर्स्ट ड्राफ्ट न्यूज‘ ने चुनाव के दौरान तीन प्रकार के संदेशों पर नजर रखने का सुझाव दिया है
- ऐसा दुष्प्रचार (डिस-इन्फोर्मेशन), जिसका उद्देश्य किसी उम्मीदवार या पार्टी को बदनाम करना है।
- मतदान प्रक्रिया को बाधित करने और नागरिकों की भागीदारी को हतोत्साहित करने लिए कुप्रचार करना। जैसे मतदान के समय और पोलिंग बूथ के स्थानों के बारे में मतदाताओं को गुमराह करना।
- चुनाव परिणामों के प्रति जनता का भरोसा कम करने के लिए झूठ फैलाना।
क्लेयर वार्डले (‘फर्स्ट ड्राफ्ट न्यूज‘ के सह-संस्थापक) के अनुसार चुनावों में दुष्प्रचार के लिए वास्तविक सामग्री को जानबूझकर विकृत किया जाता है।
लक्षित झूठ के साथ ही दुनिया भर में शक्तिशाली कुप्रचार रणनीति के अनगिनत उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। दक्षिणपंथी मीडिया व्यक्तित्व स्टीव बैनन ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के सलाहकार के बतौर काम किया था। वह कुप्रचार करके पूरे क्षेत्र में गंदगी की ‘बाढ़‘ लाने की वकालत करते हैं।
ऐसे कुप्रचार का लक्ष्य है – ‘झूठे दावों और षडयंत्रों की बाढ़ से लोगों को भ्रमित करके मीडिया और अन्य संस्थानों से जनता का भरोसा मिटाना। पक्षपातपूर्ण समर्थकों की मदद लेकर सोशल मीडिया एल्गोरिदम द्वारा इसे बढ़ावा दिया जाता है। इसमें तथ्यों के बजाय आक्रामक बातों को प्राथमिकता मिलती है। ऐसे संदेश के साथ किसी तथ्य अथवा सबूत की जरूरत नहीं। यह प्रवृति हरेक लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। ‘अमेरिका में जनता का भरोसा खत्म होने का विश्लेषण करने वाली पुस्तक में यह बात सामने आती है। इसे हार्वर्ड की लेखिका नैन्सी एल. रोसेनब्लम और डार्टमाउथ विश्वविद्यालय के रसेल मुइरहेड ने लिखा है। दोनों ने इस परिघटना को ‘सिद्धांत के बगैर एक साजिश का सिद्धांत‘ कहा है। उनके अनुसार “यह नई साजिश किसी एक झूठ को बार-बार दोहराकर सच के बतौर लागू करती है।“
ब्रैंको सेसेन (जीआईजेएन के सदस्य सेंटर फॉर इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म ऑफ सर्बिया के निदेशक) कहते हैं- “बाल्कन क्षेत्र में बड़ी संख्या में मतदाता आधारहीन ऑनलाइन साजिशों का शिकार हो गए। ताज्जुब है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग किसी संभावित षड्यंत्र के सिद्धांत पर भरोसा करने लगे। ऐसा कुप्रचार करने वालों में बड़ी संख्या राजनीति से जुड़े लोगों की है। लेकिन इसका कुछ नागरिकों पर नकारात्मक प्रभाव भी दिखता है। उनमें उदासीनता का भाव उत्पन्न होता है।“
राजनीतिक प्रचार अभियान के लिए नई-नई तकनीकों का उपयोग हो रहा है। मतदाताओं को अवांछित फोन करके परेशान करने और डराने-धमकाने के नए-नए तरीके खोजे जा रहे हैं। इन पर कानूनी रोक से बचने के रास्ते भी निकाल लिए जाते हैं। लोगों को किसी कार्यक्रम या मतदान केंद्रों पर इकट्ठा होने के लिए बड़ी संख्या में गुमनाम टेक्स्ट मैसेज भेजे जाते हैं। जैसे, अमेरिकी संघीय संचार आयोग ने आम नागरिकों को राजनीतिक संदेश भेजने के लिए ‘ऑटो-डायलिंग‘ के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया है। लेकिन इसके जवाब में सभी नंबरों को मैन्युअल रूप से डायल करने के बजाय कुछ प्रचारकर्ता अर्ध-स्वचालित, पीयर-टू-पीयर पार्टिसन टेक्स्टिंग प्लेटफॉर्म का उपयोग करके बड़ी संख्या में अवांछित संदेश भेज रहे हैं।
भारत में भी ऐसा बड़ा प्रयोग चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी ने सोशल मीडिया में स्वयंसेवकों की विशाल सेना बनाई है। ये लोग अपने मित्रों और परिवार के लोगों को बड़ी संख्या में टेक्स्ट मैसेज और वीडियो बार-बार साझा करते रहते हैं। अफ्रीका महाद्वीप के कई देशों में भी बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार चुनाव अभियान के मामले सामने आए। अफ्रीका सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज ने वर्ष 2021 के विश्लेषण में इसका खुलासा किया है।
‘द अटलांटिक काउंसिल की डिजिटल फोरेंसिक रिसर्च लैब‘ (DFRLab) में कार्यरत दक्षिण अफ्रीका स्थित शोधकर्ता टेसा नाइट कहती हैं- “हमने जिस समन्वित दुष्प्रचार का खुलासा किया है, वह आइसबर्ग यानी हिमशैल का ऊपरी सिरा मात्र है। यह समस्या लगातार बढ़ रही है। सरकारों और राजनेताओं नकली और हेरफेर करके फर्जी कंटेंट उत्पादन के माध्यम से सोशल मीडिया एल्गोरिदम का दुरुपयोग करना सीख लिया है।“
राजनीतिक संदेशों पर कैसे रखें नजर?
सोशल मीडिया में चुनावों से जुड़ी सूचनाओं की बाढ़ आ गई है। सारे राजनीतिक संदेशों पर नजर रखना किसी खोजी पत्रकार के लिए आसान काम नहीं। इसलिए विशेषज्ञों ने इस काम को यथासंभव व्यवस्थित और स्वचालित करने का सुझाव दिया है। वे फेसबुक समूहों और ट्विटर लिस्ट को फॉलो करने की सलाह देते हैं। site:twitter.com/*/lists “LISTNAME” जैसी गूगल खोज तकनीक का उपयोग करके लक्ष्यों को ट्रैक करना भी उपयोगी है। यह भी पता लगाना जरूरी है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म द्वारा किन लोगों के खाते और वीडियो चैनल को देखने की अनुशंसा स्वचालित रूप से की जाती है।
जेन लिटविनेंको (रिसर्च फैलो, ‘शोरेंस्टीन सेंटर, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी) ने कहा- “राजनीतिक बहसें चलाने वालों को फॉलो करते समय आप उसके एल्गोरिदम को काम करने दें। जब आप एक खाते को फॉलो करते हैं, तो इंस्टाग्राम स्वचालित रूप से अन्य संबंधित लोगों के हैंडल की सिफारिश करेगा। इससे आपको अध्ययन में सुविधा होगी।“ जेन लिटविनेंको ने डिजिटल मीडिया के खेल पर गहन अध्ययन किया है।
आपको यह जानना जरूरी है कि राजनीतिक चर्चाएं किस सोशल मीडिया प्लेटफाॅर्म में हो रही हैं। हर देश, क्षेत्र और वैचारिक समूह का अपना पसंदीदा सोशल मीडिया और मैसेजिंग प्लेटफॉर्म हैं। दक्षिणी अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई हिस्सों में ‘व्हाट्सएप‘ सबसे ज्यादा प्रभावशाली है। चीन में ‘वी-चैट‘ लोकप्रिय है। दक्षिणपंथी समूहों में काफी हद तक ‘टेलीग्राम‘ का उपयोग होता है। फिलीपींस में ‘फेसबुक‘ ज्यादा प्रचलित है। इसलिए चुनावी रिपोर्टिंग की तैयारी के प्रारंभ में ही उस क्षेत्र के में प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और मैसेजिंग ऐप्स की पहचान कर लें।
जेन लिटविनेंको ने कहा- “पहली बात जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह यह समझना है कि राजनीतिक चर्चाएं कहाँ हो रही हैं, और रुझान क्या हैं। जैसे, हम ब्राजील जैसे देशों में टेलीग्राम का प्रचलन बढ़ता हुआ देख रहे हैं, लेकिन अमेरिका में यह घट रहा है। ध्यान रहे कि फेसबुक समूह अब भी गलत सूचनाओं और दुष्प्रचार का प्रमुख माध्यम बने हुए हैं।“
मतदाता किन चीजों को जानने की कोशिश कर रहे हैं? यह पता लगाना भी एक खोजी पत्रकार के लिए काफी उपयोगी है। वोटिंग समुदाय के लोग क्या खोज रहे हैं, यह जानने के लिए ‘गूगल ट्रेंड्स टूल‘ के भीतर फिल्टर का उपयोग करें। चुनाव से जुड़े किसी विषय में अचानक लोगों की रुचि बढ़ा दी गई हो, तो इसका पता भी लगाना आपके लिए अच्छी खबर है। इस टूल के जरिए आप इसका पता भी लगा सकते हैं।
चुनाव से संबंधित ऐसे ट्वीट खोजें, जिन्हें राजनेताओं ने डिलीट कर दिया है। कई बार राजनेता कोई ट्वीट करने के बाद उसे डिलीट कर देते हैं। ऐसे मामले किसी खबर का संकेत देते हैं। हटाए गए ऐसे ट्वीट्स को मुफ्त पोलीट्वॉप्स टूल पर खोज सकते हैं। इसमें अब 50 से अधिक देशों के राजनेताओं के हटाए गए ट्वीट संदेशों का एक डेटाबेस है।
खोजी पत्रकार को टेलीग्राम मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर भी ध्यान देना चाहिए। जेन लिटविनेंको ने कहा- “कुछ साल पहले की तुलना में टेलीग्राम अब अधिक देशों में राजनीतिक रूप से काफी प्रासंगिक है। फेसबुक और ट्विटर जैसे बड़े प्लेटफार्मों ने चरमपंथी और उन्मादी सामग्री पर रोक लगाने का प्रयास किया है। इसलिए ऐसे कई समूह ‘टेलीग्राम‘ को ज्यादा सुरक्षित एवं उपयोगी महसूस कर रहे हैं। उनका डर बहुत कम हो गया है। इसलिए पत्रकारों को ‘टेलीग्राम‘ पर खास नजर रखनी चाहिए।“
जेन लिटविनेंको ने टेलीग्राम में सर्च के लिए इस तीन-चरण प्रक्रिया का सुझाव दिया:
- वाइल्डकार्ड के लिए कीवर्ड का उपयोग करके गूगल में निम्नलिखित ऑपरेटर का उपयोग करें – site:t.me (keywords) (कीवर्ड) – किसी टेलीग्राम चैनल को खोजने के लिए, जो आपके लिए उपयोगी हो सकते हैं।
- फिर ‘टीजीस्टेट टूल‘ खोलकर अपने किसी मनपसंद चैनलों में प्लग इन करें। यह टूल काफी उपयोगी है। यह आपको एक इको-सिस्टम देखने की सुविधा देता है। फिर आप उन चैनलों को फॉलो कर सकते हैं। रिपोर्टर ऐसी खोज के लिए टेलीगागो टूल का भी उपयोग कर सकते हैं।
- अंत में, टेलीग्राम डेस्कटॉप ऐप को साइट से डाउनलोड करें। ऐसा करने से आपको उसमें हुए संवाद के इतिहास को निर्यात करने का विकल्प मिलता है। यह किसी भी बड़े स्तर के विश्लेषण में मदद करता है। टेलीग्राम डेस्कटॉप ऐप की खूबी यह है कि एक बार जब आप पर्याप्त चैनलों की सदस्यता ले लेते हैं, तो आप इसे केवल एक खोज इंजन के रूप में उपयोग कर सकते हैं। आप उस टेलीग्राम वार्तालाप को भी देख सकते हैं? जो आपके उस मंच से जुड़ने से पहले हुई थी।
ब्रेकिंग न्यूज जानने के लिए ‘स्नैप मैप‘ और ‘ट्वीट डेक‘ का उपयोग करें। स्नैपचैट का स्नैप मैप फीचर मैसेजिंग गतिविधि के हीटमैप दिखाता है। यह आपको मैप पर किसी स्थान पर जूम-इन करने और वास्तविक समय में वीडियो स्नैप देखने की सुविधा देता है। प्रो-पब्लिका के मीडिया मैनिपुलेशन विशेषज्ञ क्रेग सिल्वरमैन के अनुसार यह काफी उपयोगी उपकरण है। यह आपको ब्रेकिंग न्यूज से जुड़े व्यापक संदर्भ देखने समझने की सुविधा देता है। इसी तरह, ‘ट्वीट डेक‘ के जरिये आप किसी खास विषय पर किसी स्थान से कोई सोशल मीडिया पोस्ट जारी करने जैसे मामलों को डैशबोर्ड कॉलम में देखने की सुविधा देता है। इसके अलावा भी कई उपयोग हैं।
कॉपी-पेस्ट ट्रिक : पक्षपातपूर्ण वेबसाइटों से जुड़ी अन्य साइटों की जांच के लिए ‘कॉपी-पेस्ट ट्रिक‘ आजमाएं। किसी पक्षपातपूर्ण वेबसाइटों के ‘अबाउट‘ या ‘होम‘ पेज से टेक्स्ट का एक हिस्सा कॉपी करके गूगल में पेस्ट करें। तत्काल आप देख सकते हैं कि क्या उसी टेक्स्ट को अन्य साइटों में भी डाला गया है। ऐसी वेबसाइटों के समान ‘लोगो‘ और ‘लेआउट‘ पर भी ध्यान दें। इससे किसी एक ही वेब डिजाइनर द्वारा सभी साइटों को बनाए जाने का पता चल सकता है। ऐसा करके आप अन्य ‘संबद्ध‘ साइटों का पता लगा सकते हैं।
‘ट्विटोनॉमी‘ – पक्षपातपूर्ण खातों का विश्लेषण करने के लिए ‘ट्विटोनॉमी‘ का उपयोग करें। यह टूल किसी ट्विटर खाते पर नजर रखने की सुविधा देता है। यह बताता है कि वह व्यक्ति कब और कितनी बार ट्वीट करता है? वह किसे रीट्वीट करता है और किन अन्य खातों पर जवाब लिखता है।
इंटरनेट शटडाउन को ट्रैक करने वाले ‘मोजिला‘ के नए विश्लेषण टूल का उपयोग करें। मोजिला ने दुनिया भर में इंटरनेट शटडाउन पर एक विशाल डेटासेट उपलब्ध कराया है। इनमें से कुछ को चुनाव से संबंधित दिखाया जा सकता है। डेटासेट तक निःशुल्क पहुंच के लिए इस फॉर्म के जरिए आवेदन करें।
ऑनलाइन राजनीतिक विज्ञापनों के स्रोत का पता लगाएं
चुनावों के दौरान ऑनलाइन राजनीतिक विज्ञापनों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। ऐसे प्रचार अभियान में सूक्ष्म स्तर पर विशेष समूह को लक्ष्य किया जाता है। अलग-अलग जनसांख्यिकीय समूहों के लिए अलग-अलग विज्ञापन जारी किए जाते हैं। ‘फ़र्स्ट ड्राफ्ट न्यूज‘ ने वर्ष 2019 में इंग्लैंड के आम चुनाव के विश्लेषण में पाया गया कि एक कंजर्वेटिव पार्टी ने ‘गेट ब्रेक्सिट डन!‘ विज्ञापन चलाया। इसमें खासकर 34 वर्ष तक के पुरुषों को टारगेट किया गया। जबकि स्वास्थ्य सेवाओं और सुरक्षा पर केंद्रित एक नए उपशीर्षक के साथ उसी विज्ञापन को केवल महिलाओं के पास पहुंचाया गया। रिपोर्ट बताती है कि सोशल मीडिया एल्गोरिदम पहले उन समूहों को संदेश देते हैं, जो शुरू में सबसे अधिक प्रतिक्रिया देते हैं। इसके आधार पर अंततः एक विश्वसनीय आउटरीच रणनीति बनाते हैं। ऐसे ऑनलाइन विज्ञापन अभियानों का बड़ा कारोबार है। एक स्नैपचैट विज्ञापन को पांच लाख से अधिक बार देखा गया। इसे जारी करने में मात्र 765 डॉलर का खर्च आया।
राजनीतिक विज्ञापनों के लिए फेसबुक की विज्ञापन लाइब्रेरी खोजें। फेसबुक की डेटा रणनीतियों को लेकर कई प्रकार के संदेह रहते हैं। इसके बावजूद यह काफी उपयोगी है। ‘यूएस नेशनल डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूट‘ के चुनाव कार्यक्रम प्रबंधक जूलिया ब्रदर्स के अनुसार फेसबुक विज्ञापन लाइब्रेरी राजनीतिक विज्ञापनों और उनके पीछे मौजूद समूहों को जानने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
क्रेग सिल्वरमैन (प्रोपब्लिका) कहते हैं- “चुनावों में पत्रकारों को फेसबुक विज्ञापन लाइब्रेरी को जरूर स्कैन करना चाहिए। आपको यह देखना चाहिए कि कौन से राजनीतिक विज्ञापन आ रहे हैं। आप कुछ विशिष्ट पृष्ठों को लक्षित कर सकते हैं। आप कीवर्ड खोज कर सकते हैं। मुझे लगता है कि छोटे देशों में फेसबुक ऐसे प्रयास कम करता है। अगर कोई फेसबुक पर राजनीतिक विज्ञापन चलाना चाहे, तो उन्हें पहले पंजीकरण करना होगा। उसे फेसबुक द्वारा अनुमोदित होना चाहिए। उन विज्ञापनों को काफी वर्षों तक संग्रहित करना चाहिए। ‘ओपन कारपोरेट्स डेटाबेस‘ के विज्ञापन लाइब्रेरी में आप अपनी रुचि के नाम खोजकर और गहराई से जांच कर सकते हैं।
गूगल की राजनीतिक विज्ञापन पारदर्शिता रिपोर्ट – गूगल का राजनीतिक विज्ञापन टूल देखें। वर्तमान में यह चुनिंदा देशों तक सीमित है। लेकिन इसके तेजी से बढ़ने की उम्मीद है। यह चुनाव संबंधी विज्ञापनों पर ‘सत्यापित विज्ञापनदाताओं‘ के खर्च पैटर्न पर विस्तृत जानकारी शामिल करने का दावा करता है। इसका डेटा प्रतिदिन अपडेट किया जाता है।
सिल्वरमैन कहते हैं – “यह फेसबुक के ट्रैकर जितना बढ़िया नहीं है। लेकिन आप गूगल से डेटा डाउनलोड कर सकते हैं। आप इसमें कुछ कल्पना भी कर सकते हैं और आप थोड़ी सी खोज कर सकते हैं। इसलिए हमें निश्चित रूप से इसकी खूबियां देखनी चाहिए।“ एनवाईयू विज्ञापन वेधशाला फेसबुक विज्ञापन के पीछे किन संगठनों की भूमिका है? इसकी गहन जांच के लिए अमेरिका के रिपोर्टर इस टूल का उपयोग कर सकते हैं। इसे न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की ‘साइबर सिक्योरिटी फॉर डेमोक्रेसी यूनिट‘ ने विकसित किया है।
राजनीतिक विज्ञापनों का अध्ययन करने वाले स्थानीय शोधकर्ताओं को खोजें। ”सिल्वरमैन कहते हैं- “पता लगाएं कि क्या आपके देश में ऐसे शिक्षाविद हैं, जो राजनीतिक विज्ञापन का अध्ययन करते हैं? अधिकांश देशों में ऐसे लोग होते हैं। उनसे बात करें। देखें कि वे कौन से अध्ययन और डेटा एकत्र कर रहे हैं। संभव है कि अन्य एजेंसियों के डेटा से इनमें कुछ अलग मिल जाए।“
दुष्प्रचार करनेवालों का पता कैसे लगाएं
जेन लिट्विनेंको (फेलो, शोरेंस्टीन सेंटर) कहती हैं- “सोशल मीडिया पर झूठी जानकारी फैलाना राजनीतिक और आर्थिक रूप से काफी लाभदायक है। एक खोजी रिपोर्टर के रूप में आपको यह जांचना चाहिए कि इस झूठ से किसे लाभ हो रहा है? यदि आप राज्य-प्रायोजित हस्तक्षेप के बारे में चिंतित हैं, तो पूछें कि क्या झूठ फैलाने के लिए बदनाम रूस, चीन, ईरान जैसे देशों के राजनयिक किसी रूप से लाभान्वित हो रहे हैं। घरेलू तौर पर हम देखते हैं कि राजनेता अपना एजेंडा मजबूत करने के लिए गलत सूचना का उपयोग करते हैं। यह दिखाने के लिए कि उनके पास अधिक समर्थन है। किसी विशेष नीति के माध्यम से आगे बढ़ने के लिए भी झूठ फैलाते हैं।”
जेन लिट्विनेंको ने बताया कि सोशल मीडिया में किसी विषय पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने में कौन-सी चीजें मदद करती हैं। तस्वीरों के रूप में गलत सूचनाएं काफी शक्तिशाली हैं। इस खतरे को समझने के लिए उन्होंने वाशिंगटन पोस्ट की इस गाइड की सिफारिश की।
चुनाव में दुष्प्रचार करने वाले कौन लोग होते हैं? ऐसे समन्वित अभियानों के पीछे कई तरह की ताकतें हो सकती हैं। जैसे, राजनीतिक कार्यकर्ता, पक्षपातपूर्ण समाचार मीडिया, विदेशी ताकतें, सरकार समर्थित ट्रोल, लोकतंत्र विरोधी या राजनीतिक चरमपंथी लोग, विशेष रुचि समूह, समर्पित सोशल मीडिया प्रचार नेटवर्क इत्यादि। इनके अलावा ऐसे युवा भी इसमें शामिल हो सकते हैं, जिन्होंने राजनीतिक झूठ फैलाने के जरिए कमाई करने का एक तरीका खोज लिया है। उन्हें प्रति साइट विजिट करने पर मामूली पैसे मिल सकते हैं। वे अनजाने में इस किसी गलत सूचना को फैलाने में प्रतिभागी हो सकते हैं। ‘फर्स्ट ड्राफ्ट न्यूज‘ के अनुसार किसी संकीर्ण मुद्दे पर आम नागरिक की किसी ईमानदार बात को दुष्प्रचार एजेंट अपने हित में इस्तेमाल कर सकते हैं। इस रिपोर्ट में एक उदाहरण बताता है कि आगजनी की एक घटना की रिपोर्ट को ऑस्ट्रेलिया में जलवायु की उपेक्षा के एजेंडे से जोड़ दिया गया।
क्रेग सिल्वरमैन ने वर्ष 2016 में एक जांच की। पता चला कि मैसेडोनिया नामक एक शहर के कुछ युवाओं द्वारा 100 से अधिक ट्रम्प समर्थक दुष्प्रचार वेबसाइटें चलाई जा रही थीं। इनमें से कुछ ने ट्रैफिक-आधारित विज्ञापन राजस्व में प्रति माह 5,000 डॉलर तक की कमाई की। अधिकांश ने फ्रंट रनर डोनाल्ड ट्रम्प और उनके डेमोक्रेटिक चैलेंजर हिलेरी क्लिंटन के बीच वैचारिक मतभेदों की परवाह नहीं की। उन्होंने ट्रम्प समर्थकों द्वारा सोशल मीडिया शेयरों को अधिक लाभदायक पाया। हालांकि उनके झूठे पोस्टों का अमेरिका में 2016 के चुनावों पर बुरा प्रभाव पड़ा।
वर्ष 2020 में फ्रांसीसी रिपोर्टर अलेक्जेंड्रे कैप्रोन ने डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में एक हानिकारक दुष्प्रचार अभियान की जांच की। पता चला कि यह आर्थिक लाभ या राजनीतिक प्रभाव से प्रेरित नहीं था, बल्कि केवल सोशल मीडिया में डींग मारने के लिए चलाया गया था।जेन लिट्विनेंको कहती हैं- “गलत सूचनाओं का पहला चरण आमतौर सोशल मीडिया पर सामग्री का एक पूर्ण बैराज होता है। आमतौर पर इसमें फोटो और वीडियो का ज्यादा उपयोग होता है। कई बार संदर्भ से बाहर भ्रामक तरीके से जोड़ा जाता है।
क्राउड-ट्रेंगल – दुष्प्रचार की जांच के नए उपकरण आजमाएं। फेसबुक, रेडिट और इंस्टाग्राम के पोस्ट को ट्रैक करने के लिए ‘क्राउड-ट्रेंगल‘ एक महत्वपूर्ण टूल रहा है। लेकिन क्रेग सिल्वरमैन ने चेतावनी दी है कि यह व्यावहारिक उपकरण अब नई सीमाओं का शिकार हो चुका है। जैसे, नए खातों को निलंबित करने तथा अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहा है। यह फिलीपींस जैसे देशों में फेसबुक के प्रभुत्व वाले चुनावों में पत्रकारों के लिए एक झटका है। क्रेग सिल्वरमैन का कहना है कि जंकीपीडिया के जरिए आप अधिकांश देशों में जांच कर सकते हैं। इसमें मीडिया-अनुकूल सुविधा भी अधिक है। जंकीपीडिया वायरल गलत सूचना और ‘समस्याग्रस्त सामग्री‘ पर केंद्रित है।
त्वरित सत्यापन टूल के जरिए नई स्टोरी निकालें। तथ्य-जांच करने वाले संगठन आम तौर पर किसी झूठ को पकड़ने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। संदिग्ध फोटो, वीडियो और गलत दावों की जांच करके सच सामने लाया जाता है। ऐसे मामलों में कई महत्वपूर्ण खबरें भी निकल सकती हैं। जीआईजेएन की इमेज वेरीफिकेशन गाइड देखें। इसमें पत्रकारिता प्रशिक्षक रेमंड जोसेफ ने सोशल मीडिया में फर्जी तस्वीरों की जांच के लिए मुफ्त फोटो ‘शर्लक ऐप‘ और ‘फेक इमेज डिटेक्टर‘ ऐप का उपयोग बताया है। इसके अलावा, कई उपयोगकर्ता-अनुकूल टूल के उपयोग की भी जानकारी दी है। किसी फोटो से सुराग खोजने के उपाय भी बताए हैं। चुनाव के दौरान तत्काल किसी जांच में पत्रकारों के लिए ये उपकरण विशेष रूप से उपयोगी हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि कैसे पत्रकार अपने मोबाइल फोन पर फोटो यूआरएल या वेब पते को गूगल इमेज में डालकर तत्काल किसी तस्वीर की जांच कर सकते हैं।
कुप्रचार के बारे में नागरिकों को शिक्षित करें। गलत सूचना और दुष्प्रचार अब काफी व्यापक हैं। इनके कई रूप हैं। नागरिकों को झूठ की विभिन्न प्रजातियों के बारे में बताएं। जैसे- एजिट-प्रॉप (agitprop)। यह नागरिकों को किसी एक विशिष्ट कार्रवाई या गैसलाइटिंग के लिए उकसाने वाला कुप्रचार है। यह स्थापित तथ्यों पर हमला करने के लिए झूठ और भ्रामक कहानियां फैलाता है। यह सच के प्रति विश्वास को कम करके अनावश्यक विवादों को प्रासंगिक बनाता है। इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए दो महत्वपूर्ण संसाधन देखें: गैर-लाभकारी समूह ‘डेटा एंड सोसाइटी’ का एक्सप्लेनर और ‘फर्स्ट ड्राफ्ट न्यूज’ का इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर टूलबॉक्स।
दुष्प्रचार फैलाने वालों का पता लगाएं। इन्हें ‘डिस-इन्फॉर्मेशन सुपर स्प्रेडर’ कहा जाता है। कुछ लोग सुनियोजित तरीके से समन्वित सोशल मीडिया चुनावी दुष्प्रचार चलाते हैं। लेकिन कुछ सामान्य भोले-भाले ऐसे नागरिक भी होते हैं जो किसी गलत संदेश को साझा करते हैं। भले ही उनकी कोई गलत मंशा न हो। खोजी पत्रकार को किसी सुनियोजित साजिश और एक निर्दोष नागरिक के बीच अंतर समझना होगा। इसके लिए इटली के उरबिनो विश्वविद्यालय ने ‘कूआरनेट’ बनाया है। यह संदिग्ध साझाकरण पैटर्न की पहचान करने के लिए एल्गोरिदम का उपयोग करता है। इसे ‘आर’ प्रोग्रामिंग भाषा के तहत बनाया गया है। यह उपकरण ओपन-सोर्स विजुअलाइजेशन प्लेटफॉर्म ‘गेफी’ के साथ मिलकर और अधिक शक्ति कारगर है।
दुष्प्रचार के लाभार्थियों का पता लगाएं। खोजी पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण काम यह है कि गलत सूचना फैलाने से किसे लाभ हुआ, इसका पता लगे। इसके लिए ‘वी वेरिफाई ट्विटर एसएनए टूल‘ का उपयोग करें। इस चुनावी गाइड के पहले अध्याय में हमने इस नए मुफ्त टूल की पूरी जानकारी दी है। इस टूल का उपयोग ट्विटर पर प्रचारित चुनावी दुष्प्रचार के पीछे व्यक्तियों को ट्रैक करने और ग्राफिक रूप से मैप करने के लिए किया जा सकता है। विशेषज्ञ इस टूल को गेम-चेंजर मानते हैं। इसके दो कारण हैं। यह सामग्री की तुलना में उपयोगकर्ताओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। दूसरी विशेषता यह है कि इसका उपयोग करने के लिए पत्रकारों को किसी विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं है। यह उपकरण उन संगठनों और वेबसाइटों का भी पता लगा सकता है, जो कुप्रचार अभियान से सबसे अधिक लाभान्वित होते हैं।
‘बोट’ मशीन द्वारा स्वचालित सोशल मीडिया खातों की पहचान करें। आजकल सोशल मीडिया में ‘बोट’ के माध्यम से पोस्टिंग का प्रचलन है। इसका पता लगाने के लिए ‘एकाउंट एनालिसिस ऐप’ का उपयोग करें। यह ‘बोट’ मशीन द्वारा संचालित खातों का पता लगाने के लिए विभिन्न तकनीकों का उपयोग करता है। इसके ‘डेली रिदम’ फीचर में ऐसे अकाउंट का पता लगाया जाता है, जो आधी रात में एक बजे से सुबह पांच बजे के बीच ट्वीट पोस्ट करते हैं। इस वक्त मनुष्य आमतौर पर सो रहे होते हैं। एक अन्य टूल ‘बॉटोमीटर’ है। यह पता लगाता है कि कोई ट्वीटर खाता और उसके फॉलोवर मनुष्य हैं या ‘बोट’ मशीन।
झूठ का फायदा उठाने वाले नेताओं का पता लगाएं। कुछ राजनेता ऐसे झूठ को दोहराते रहते हैं जिन्हें पहले ही खारिज कर दिया गया है। यानी कोई सच सामने आने के बाद भी झूठ बोलना जारी रखते हैं। भले ही उस झूठ के बावजूद उन्हें चुनाव में सफलता न मिली हो। लिट्विनेंको कहती हैं- “किसी राजनीतिक समूह के लिए दुष्प्रचार की जांच के दौरान यह देखना महत्वपूर्ण है कि वे किन नीतियों को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं। अमेरिका में, हम झूठे ‘स्टॉप द स्टील’ अभियान के पीछे वोटिंग अधिकारों पर भारी प्रतिबंध देखते हैं। इसमें झूठ फैलाया गया कि वर्ष 2020 के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प को धोखे से हराया गया। यह कदम आपको गलत सूचना के उद्देश्य को समझने में मदद करेगा।”
‘डीप फेक’ का खतरा भी बढ़ रहा है। डीप फेक वीडियो के जरिए वास्तविक लोगों की ऐसी फर्जी इमेज बन सकती है, जो देखने में सच्ची लगे। इसके कारण जनता के विश्वास और लोकतंत्र पर बुरा असर पड़ सकता है। कानून के प्रोफेसर डेनिएल सिट्रोन ने वर्ष 2019 में एक टेड टॉक में इसकी जानकारी दी थी। क्रेग सिल्वरमैन के अनुसार “चुनाव को प्रभावित करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल होता है।”
मामूली तकनीक पर आधारित तकनीक वाली ‘चीपफेक’ रणनीति भी काफी प्रभावी है। जैसे, किसी राजनीतिक वीडियो पर लिखे कैप्शन को बदलना। क्रेग सिल्वरमैन ने कहा कि चुनाव के 48 घंटों पहले डीपफेक के जरिये फर्जीवाड़े की सबसे अधिक संभावना है। अंतिम समय पर गलत प्रचार हो तो उस वीडियो की जांच या खंडन करने के लिए बहुत कम समय होगा।
डीप फेक वीडियो का पता लगाने के लिए ‘इनविड’ या ‘माइक्रो सॉफ्ट वीडियो ऑथेंटिकेटर’ का उपयोग करें। यह जांचने के लिए पारंपरिक स्रोतों का उपयोग करें कि क्या उम्मीदवार क्लिप में दर्शाए गए दृश्य में था।
चुनावी डर्टी ट्रिक्स की जांच करें
चुनाव के दौरान डर्टी ट्रिक्स की जांच अक्सर खोजी पत्रकार ही करते हैं। कानून प्रवर्तन एजेंसियां आम तौर पर ऐसी अनैतिक रणनीति की जांच नहीं करती। मतदान पर नजर रखने वाले स्वयंसेवी समूहों को प्रतिक्रिया करने में बहुत लंबा समय लगता है। नागरिक आमतौर पर गंदी चालों का शिकार हो जाते हैं। ऐसी साजिश करने वाले चुनाव को गलत तरीके से प्रभावित कर देते हैं। ये वैध राजनीतिक चालों से अलग हैं। जैसे जानबूझकर को डेटा जारी करके भ्रम फैलाना। किसी चुनाव के ठीक एक दो दिन पहले किसी उम्मीदवार के मेडिकल रिकॉर्ड के सैकड़ों पृष्ठ जारी करना।
लेकिन यहाँ हम मतदाताओं को गलत सूचना देने या धोखा देने के लिए बनाई गई रणनीति की बात कर रहे हैं। कुछ सरकारें लोकतंत्र विरोधी, अनैतिक या नस्लवादी कानून बनाती हैं। खोजी पत्रकारों को ऐसे कानूनों का सच बताना चाहिए। जैसे, वर्ष 2014 में अमेरिकी राज्य अलबामा ने एक नया कानून बनाया। इसमें ड्राइविंग लाइसेंस और वोटर कार्ड बनाने के लिए प्रमाण के रूप में फोटो आईडी दस्तावेजों की एक संकीर्ण सूची को अनिवार्य कर दिया गया। एक साल बाद अधिकारियों ने उन सरकारी कार्यालयों को बंद कर दिया जिन क्षेत्रों से विपक्षी दल को ज्यादा वोट मिलने की संभावना हो। इसके लिए बजट की कमी का बहाना बनाया गया। लेकिन एक स्वयंसेवी संस्था ब्रेनन सेंटर ने एक उपयोगी नक्शा प्रकाशित किया। इसमें दिखाया गया था कि ऐसे कार्यालय बंद किये जाने वाले 31 क्षेत्रों में नागरिकों द्वारा भारी संख्या में विपक्ष को मतदान करने की संभावना थी।
सच्चाई उजागर करने के लिए क्राउडसोर्सिंग का प्रयोग करें। भ्रामक चुनावी फर्जीवाड़े की शुरुआत कहाँ से हुई, यह पता लगाएं। पहले से रिकॉर्ड किए गए संदेशों की बड़ी मात्रा लोगों तक पहुंचाने के लिए स्वचालित कॉल को ट्रैक करना बेहद मुश्किल है। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की गंदी चालों का पता लगाने के लिए क्राउडसोर्सिंग सबसे अच्छा तरीका है। वर्ष 2018 में कंप्रोवा प्रोजेक्ट ने ब्राजील के चुनावों में कुप्रचार को सफलतापूर्वक उजागर किया। इसके लिए 24 मीडिया संगठनों ने एक व्हाट्सएप नंबर जारी किया। इसके कारण उनके संयुक्त दर्शकों द्वारा सुझावों की बाढ़ आ गई। यह परियोजना उस देश में वर्ष 2022 के चुनावों में संभावित कुप्रचार की गंदी चाल की निगरानी कर रही है।
लिट्विनेंको कहती हैं – “क्राउड सोर्सिंग बेहद महत्वपूर्ण है। गलत सूचना फैलाने वाले शुरुआती लोगों की पहचान करने और विशेष रूप से व्हाट्सएप के लिए एक टिपलाइन बनाकर आपसी सहयोग करें।”
चुनावी धांधली के निम्नांकित तरीकों पर नजर रखें:
- मतदाता पंजीकरण के दिनों और चुनाव के दिन ट्रैफिक जाम कराकर ऐसी प्रक्रिया को बाधित करना।
- फर्जी जनमत सर्वेक्षण के जरिए विपक्षी उम्मीदवारों या किन्हीं नीतियों की हार दिखाना, इसके लिए हेरफेर किए गए संदेश का उपयोग करना।
- मतदान को हतोत्साहित करने के लिए दुष्प्रचार करना, चुनाव की तारीख को लेकर भ्रम फैलाना, वोट देने के लिए किसी अनावश्यक आईडी की जरूरत बताकर गलत जानकारी फैलाना।
- मतदाता पंजीकरण का दावा करके नए मतदाताओं को यह बोलकार डराना कि आपको अधिक टैक्स देना पड़ सकता है।
- प्रतिस्पर्धा को असमान करके कम संसाधन वाले प्रत्याशियों के लिए प्रचार या मीडिया के अवसर कम करना।
- डाक मतपत्र प्रक्रिया के संबंध में मतदाताओं को भ्रमित करना।
- किसी उम्मीदवार को बदनाम करने के लिए ‘डार्क पीआर‘ रणनीति का उपयोग करना। गलत लोगों के साथ उसके संबंध को लेकर झूठ फैलाना।
- सरकारी संसाधनों का अवैध या अनैतिक उपयोग करके अपना चुनाव प्रचार करना।
- किसी विपक्षी उम्मीदवार के घर का पता किसी अन्य जिले में गलत तरीके से पंजीकृत कराना।
- विदेशी हस्तक्षेप का प्रयास करना।
कानूनी तौर पर चुनावी धांधली के इन तरीकों पर ध्यान दें:
- विपक्षी मतदाताओं को नुकसान पहुंचाने, हतोत्साहित करने या बाधा डालने के लिए चुनाव नियमों में बदलाव करना। किसी समुदाय के पर्व-त्यौहार या महत्वपूर्ण दिनों में मतदाता पंजीकरण की तिथि रखकर उन्हें रोकने के नियम बनाना। ऐसे कानून बनाना जिनमें मतदान के लिए ऐसे पहचानपत्र की आवश्यकता हो, जो विपक्षी मतदाताओं के पास होने की संभावना कम होती है।
- तानाशाहों के चुनावी हथकंडे। तानाशाहों द्वारा आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली गंदी कानूनी चालों की सूची इस गाइड में देखें।
- संसदीय क्षेत्र या विधानसभा क्षेत्र की सीमाओं को फिर से निर्धारण करके किसी समूह विशेष के वोट को अलग कर देना ताकि उस समूह के वोट का कोई असर न हो सके। ऐसा करके लोकतांत्रिक सिद्धांतों का मजाक उड़ाया जा सकता है। समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली वाले देशों में यह समस्या कम है। जैसे, इजराइल और नीदरलैंड। कुछ देशों में निष्पक्ष संगठनों को चुनाव प्रक्रिया बेहतर करने का अवसर मिलता है। जैसे ऑस्ट्रेलिया और कनाडा। दूसरी तरफ, हंगरी, अमेरिका, हांगकांग, सूडान, फिलीपींस जैसे देशों में कई जटिलता मौजूद है।
- मतदान को कठिन बनाकर चुनावी धांधली करना भी एक तरीका है। अनुसंधान से पता चलता है कि कई राजनीतिक दल जानबूझकर कुछ समूहों के लिए मतदान को कठिन बनाते हैं ताकि प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के समर्थक लोग मतदान से वंचित हो जाएं। इन विसंगतियों को उजागर करने के लिए फ्लोरिश जैसे विजुअलाइजेशन टूल का उपयोग करें। लिट्विनेंको कहती हैं- “याद रखें कि अधिकांश चुनावी धोखाधड़ी के मामले स्थानीय रूप से शुरू होते हैं।“
- पक्षपातपूर्ण तरीके से कुछ खास मतदान केंद्र बंद करना भी चुनावी धोखाधड़ी का एक तरीका है। पुलित्जर विजेता रिपोर्टर डेविड के जॉन्सटन (David Cay Johnston) के अनुसार कुछ खास मतदान केंद्रों को बंद करके मतदाता का दमन करना लोकतंत्र में बढ़ रहा है। यूएस में ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटिग्रिटी‘ का डेटाबेस बताता है कि विपक्षी समर्थन के क्षेत्रों में लक्षित मतदान स्थल को किसी तरह बंद किया जाता है।
क्रेग सिल्वरमैन कहते हैं- “चुनाव के दौरान मीडिया संगठन अपने पाठकों को अपनी आंख और अपने कान के रूप में उपयोग करें। उनसे कहें कि यदि आप चुनावी धांधली या वोट में हस्तक्षेप करने के प्रयास देखते या सुनते हैं, तो हमें जरूर बताएं। आखिरकार यह उनका लोकतंत्र है।“
संपादकीय टिप्पणी: चुनावी रिपोर्टिंग के लिए जीआईजेएन गाइड का की यह चौथी एवं अंतिम किस्त है। इस गाइड के परिचय के साथ चार अध्याय और प्रकाशित किए गए हैं। इनके लिंक आप ऊपर देख सकते हैं।
अतिरिक्त संसाधन
Investigating Politicians: Chapter 8 of the GIJN Citizen Investigations Guide
Essential Resources for the US Election: A Field Guide for Journalists on the Frontlines
GIJN Webinar — Digging into Election Disinformation in the US
रोवन फिलिप जीआईजेएन के संवाददाता हैं। वे पूर्व में दक्षिण अफ्रीका के संडे टाइम्स के मुख्य संवाददाता थे। एक विदेशी संवाददाता के रूप में उन्होंने दुनिया भर के दो दर्जन से अधिक देशों से समाचार, राजनीति, भ्रष्टाचार और संघर्ष पर उन्होंने रिपोर्टिंग की है।