A reporter holding a magnifying glass peers out of the Indian flag.
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Image: Nyuk for GIJN

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कठिन सवाल, निर्भीक पत्रकारिता: ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’

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जून 2019 में दिल्ली असहनीय गर्मी से गुजर रही थी। लेकिन पत्रकार नितिन सेठी अपने घर में दस्तावेजों के ढेर से घिरे बैठे थे। वह कुछ कागजी सबूतों की जांच कर रहे थे। उन्हें यकीन था कि इसमें ऐसी खबर है, जो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कुछ मुश्किलें पैदा कर देगी। उनकी पार्टी भाजपा ने हाल ही में बड़ी जीत हासिल की थी।

लेकिन उनके सामने एक बड़ी समस्या थी। उन्होंने हाल ही अंग्रेजी अखबार ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में रिपोर्टर की नौकरी छोड़ दी थी। अब अपनी खोजी खबर प्रकाशित करने के लिए उनके पास कोई माध्यम नहीं था। वह कहते हैं- “मुझे मालूम था कि कोई भी प्रमुख अखबार मेरी कहानी प्रकाशित नहीं करेगा।”

इसके बावजूद, नितिन सेठी ने कहानी लिखी। इसे कई छोटे मीडिया प्लेटफार्मों में प्रकाशित कराने का फैसला किया। यह खबर बड़े अखबारों के व्यापक पाठकों तक भले ही तत्काल नहीं पहुंच सकी हो, लेकिन यह कहानी सार्वजनिक हो गई।

वह कहते हैं- “मैंने खबर के सह-प्रकाशन के लिए विभिन्न भाषाओं के कई प्रकाशनों का नेटवर्क बनाया। एक दिसंबर 2019 से खबर का प्रकाशन शुरू हुआ। हफ़िंगटन पोस्ट इंडिया, न्यूज़ लॉन्ड्री, सवुक्कु मीडिया और अज़ीमुखम में चार भाषाओं में लगभग 10 कहानियां प्रकाशित हुईं।

इसी विषय पर स्क्रॉल.इन और द न्यूज़मिनट जैसी स्वतंत्र समाचार वेबसाइटों के अन्य पत्रकार भी शोध कर रहे थे। इन खबरों से खुलासा हुआ कि भारत में शुरू की गई चुनावी बॉन्ड नामक राजनीतिक फंडिंग व्यवस्था ने किस तरह मोदी की पार्टी भाजपा को अनुपातहीन रूप से काफी लाभ पहुंचाया। यह योजना गोपनीय राजनीतिक चंदे के जरिए भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी रोकने के नाम पर लाई गई थी। लेकिन संभावित चंदादाताओं से बड़ी धनराशि वसूलने के लिए भाजपा पर इस योजना के दुरूपयोग का आरोप लगा।

यह मुद्दा एक राष्ट्रीय विवाद बन गया। चुनावी बॉन्ड की वैधता पर सवाल उठाने वाली सुप्रीम कोर्ट याचिकाओं में इन खबरों को आधार बनाया गया। फरवरी 2024 में सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया। कहा कि यह मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है। इसमें पांच साल का लंबा समय लगा। लेकिन नितिन सेठी को लगा कि उनका फैसला सही था।

शून्य से एक संस्थान तक

ऐसी बेहतरीन खबरें प्रकाशित करने के लिए उपयुक्त मंच के अभाव ने नितिन सेठी को अपने साथी पत्रकार और सहसंस्थापक कुमार संभव के साथ फरवरी 2020 में ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया। यह संगठन दिल्ली में स्थित है। इसने ठोस सबूतों के साथ रिपोर्टिंग करने और विभिन्न प्लेटफार्मों पर प्रकाशन को अपना आदर्श बनाया है। विगत वर्षों में इसकी कई खोजपूर्ण खबरें काफी उल्लेखनीय रहीं। जैसे –

पत्रकार और लेखिका कल्पना शर्मा न्यूज़लॉन्ड्री के लिए भारतीय मीडिया पर नियमित कॉलम लिखती हैं। वह कहती हैं- “द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पत्रकारिता की मूल आत्मा को फिर से स्थापित किया है। इसमें सही सवाल पूछे जाते हैं। अपने काम के लिए पुख्ता सबूतों की तलाश होती है। उन्हें बिना किसी डर के प्रकाशित किया जाता है।”

रिपोर्टर्स कलेक्टिव के संस्थापक नितिन सेठी। फोटो : स्क्रीनशॉट

प्रारंभ में नितिन सेठी ने देश भर के पत्रकारों से कहानियां मंगवाईं। अपने निजी धन से परियोजनाओं को आगे बढ़ाया। उन्हें विभिन्न भाषाओं में स्थापित मंचों पर प्रकाशित कराया। लेकिन 2023 तक हालात बदतर हो गए। ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ की कहानियाँ प्रकाशित करने के कारण उनके क्षेत्रीय सहयोगियों को फ़ोन कॉल तथा अन्य तरीकों से धमकियां मिलने लगीं। फंडिंग की स्थिति भी गंभीर होती जा रही थी। नितिन सेठी कहते हैं- “अपनी खबरें प्रकाशित कराने के लिए स्वतंत्र वेबसाइटों पर अत्यधिक निर्भरता के कारण हमें अपनी स्टोरीज के अनुरूप उचित महत्व नहीं मिल रहा था।”

इस स्थिति को बदलने के लिए सहयोगियों के साथ मिलकर उन्होंने एक गैर-लाभकारी संगठन के बतौर ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ का पंजीयन कराया। अपनी वेबसाइट पर अंग्रेजी और हिंदी में प्रकाशन शुरू किया। उस सामग्री को पुनर्प्रकाशन के लिए कॉपीराइट मुक्त कर दिया।

आज ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ में छह पूर्णकालिक कर्मचारी कार्यरत हैं। स्वतंत्र पत्रकारों का एक अच्छा नेटवर्क है। यह हर महीने दो से तीन लंबी जांच-पड़ताल पर ध्यान केंद्रित करता है। इसकी कार्यप्रणाली ‘मितव्ययी’ है। यह पूरी तरह से पाठकों द्वारा वित्त पोषित है। यह उनके दान पर निर्भर है। नितिन सेठी कहते हैं- “पहले दिन से ही हमारी 85% राशि का उपयोग खबरों के उत्पादन में लग रहा है।”

कल्पना शर्मा के अनुसार यह एक टीम छोटी है। अन्य स्वतंत्र मीडिया संस्थानों की अपेक्षा इसमें कम कहानियां प्रकाशित होती हैं। लेकिन इसका प्रभाव काफी महत्वपूर्ण है। वे कहती हैं- “मेरे सामान्य परिचित लोगों में कोई भी इन्हें नहीं पढ़ता। लेकिन सत्ता में बैठे लोग इन्हें ज़रूर पढ़ते हैं।”

मीडिया की निराशाजनक स्थिति

भारत में लोकतांत्रिक मानदंडों को मज़बूत करने में मीडिया ने आरंभ से काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसे ‘दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला लोकतंत्र’ कहा जाता है। लेकिन पिछले एक दशक में राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है। इसके साथ ही शोध संस्थानों और गैर-सरकारी संगठनों ने भारत को “त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र” या “चुनावी निरंकुशता” वाला देश कहना शुरू कर दिया।  प्रेस की स्वतंत्रता को भी व्यावसायिक संकट की से गुजरना पड़ा है। पारंपरिक मीडिया संस्थानों पर बड़े व्यवसायों का कब्ज़ा बढ़ने के कारण निष्पक्ष पत्रकारिता को झटका लगा है। भारत के कई जीवंत अख़बार और टीवी चैनल  महज सरकारी मुखपत्र बन गए हैं।

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) द्वारा हर साल विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक जारी किया जाता है। इसके अनुसार, 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद से भारत लगातार इसकी रैंकिंग में नीचे खिसकता गया है। आज इसकी रैंकिंग काफी निचले पायदान,  151वें स्थान पर पहुंच गई है। यह भूटान, तजाकिस्तान, यमन और इराक से थोड़ा ही ऊपर है।

भारतीय मीडिया के समक्ष अब ‘सेल्फ सेंसरशिप’ की बड़ी चुनौती है। आरएसएफ के अनुसार यह बड़े मीडिया संगठनों में व्याप्त है। पत्रकारों को लगातार कानूनी धमकियों का सामना करना पड़ता है। सरकार पर सवाल उठाने वाले मीडिया घरानों पर इनकम टैक्स विभाग कार्रवाई करता है। बीबीसी ने फरवरी 2023 में प्रधानमंत्री की आलोचना करने वाली एक डॉक्यूमेंट्री जारी की। इसके कुछ ही हफ्तों बाद इनकम टैक्स अधिकारियों ने नई दिल्ली और मुंबई में बीबीसी के कार्यालयों की तलाशी ली। उसी वर्ष अडानी समूह ने प्रतिष्ठित टीवी चैनल  ‘एनडीटीवी’ का अधिग्रहण कर लिय। इस समूह के मालिक को प्रधानमंत्री का करीबी माना जाता है। इसके बाद  2024 में मोदी सरकार से जुड़ी कुछ अप्रिय खबरें लिखने वाले कई विदेशी संवाददाताओं को भारत छोड़ने के लिए कहा गया।

आरएसएफ के अनुसार भारत में मीडिया की सुरक्षा पर खतरा बढ़ा है। इसके अलावा, “स्वतंत्र मीडिया का न्यायिक उत्पीड़न भी काफी गंभीर स्तर पर पहुँच गया है।” कुछ क्षेत्रों में पत्रकारों को अपना काम करने के लिए आवश्यक “विश्वसनीय जानकारी तक पहुँच पर लगातार गंभीर प्रतिबंधों” का सामना करना पड़ रहा है।

‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ ने वर्ष 2021 में एक गैर-लाभकारी संस्था के रूप में पंजीकरण कराया था। उनके कानूनी दस्तावेजों में यह स्पष्ट था कि वे खबरें प्रकाशित करने के साथ ही शोध और प्रशिक्षण पर काम करेंगे। उन्हें आयकर-मुक्त दर्जा दिया गया था। लेकिन जनवरी 2025 में यह दर्जा रद्द कर दिया गया। आयकर विभाग के आदेश में लिखा गया- “इस फाउंडेशन का दावा है कि इसकी प्रकाशित सामग्री जनहित और शिक्षाप्रद प्रकृति की है। लेकिन फाउंडेशन ने इसे साबित करने लायक कोई भी कार्य पेश नहीं किया है।”

इस फैसले को ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ ने अदालत में चुनौती दी है। इस फैसले का उनकी आर्थिक स्थिति पर सीधा असर पड़ा है। लगभग आधे कर्मचारियों को नौकरी से निकालना पड़ा। इसके कारण नई खबरों का मानदेय देने और संपादन की उनकी क्षमता प्रभावित हुई है। नितिन सेठी कहते हैं- “अगर कोई व्यक्ति कहे कि उसके पास एक ज़रूरी जानकारी है,  तब भी हमें कहना पड़ता है कि अभी हमारे पास क्षमता नहीं है और इसमें कुछ समय लग सकता है।”

कल्पना शर्मा के अनुसार जब कई बड़े मीडिया संस्थान सरकार के इशारों पर चल रहे हैं, उस दौर में ताकतवर लोगों के खिलाफ खड़े होने वाले छोटे और स्वतंत्र मीडिया संस्थान ज़्यादा असुरक्षित हो सकते हैं। “वे अलग दिखते हैं। शायद इसीलिए अधिकारियों ने उन्हें निशाने पर लिया है।”

ऐसी पत्रकारिता की जरूरत

साल 2023 में संस्था ने “फ़ॉरेस्ट्स फ़ॉर प्रॉफ़िट” शीर्षक से एक जांच प्रकाशित की, जिसमें यह उजागर किया गया कि व्यावसायिक हितों के कारण भूमि अधिकारों और संरक्षण नीतियों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। फोटो : द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के लिए विकस ठाकुर द्वारा बनाई गई एक इलस्ट्रेशन का स्क्रीनशॉट

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ जैसी रिपोर्टिंग की चाहत और ज़रूरत दोनों चीजें मौजूद हैं।

जनवरी 2025 में मध्य भारत के राज्य छत्तीसगढ़ में 32 वर्षीय पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या कर दी गई। वह सड़क निर्माण से जुड़े भ्रष्टाचार पर रिपोर्टिंग कर रहे थे। उनके साथ जो हुआ, वह स्तब्ध करने वाला था। इसलिए, तीन पत्रकारों ने ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ से संपर्क कर उस सड़क घोटाले की जांच जारी रखने के लिए सहयोग मांगा।

छत्तीसगढ़ में सरकार चार दशकों से चरम वामपंथी समूहों से लड़ रही है। यहां के पत्रकार कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं। राज्य की सेंसरशिप, धन की कमी और शारीरिक धमकियां जैसी चीजें मिलकर काफी जटिल और नाज़ुक रिपोर्टिंग प्रक्रिया को जन्म देती हैं।

हत्या के तीन महीने बाद वरिष्ठ पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम, हिंदी पत्रकार पुष्पा रोकड़े और रौनक शिवहरे ने अपना खुलासा प्रकाशित किया। इसमें मुकेश चंद्राकर की मौत की विस्तृत जांच के साथ ही क्षेत्र में भ्रष्टाचार पर रिपोर्ट थी। इस जांच ने यह सुनिश्चित किया कि हत्या के कारण मुकेश चंद्राकर द्वारा शुरू की गई जांच को दबाया न जा सके।

इस खबर की शुरुआत इस प्रकार की गई- “यह कहानी हमारे डर और दुःख की छाया के साथ ही हमारे गुस्से की रोशनी में लिखी गई है,”

मालिनी सुब्रमण्यम कहती हैं कि ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ ने हमें भरपूर सहयोग किया। नितिन सेठी ने बिना किसी हिचकिचाहट के हमारे प्रस्ताव को स्वीकार किया। “इसके बाद उन्होंने तीन विभिन्न ज़िलों में हमारे प्रयासों का समर्थन किया।” वह ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ में कहानियों के संपादन संबंधी गंभीरता का भी ज़िक्र करती हैं। वह जीआईजेएन को बताती हैं- “हमसे पूछा जाता है कि क्या हमारे पास कहानियों में किए गए हर दावे को पुष्ट करने वाले दस्तावेज़ हैं।”

फिलहाल ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ की टीम पूर्वी भारत के राज्य बिहार में एक और महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दे को कवर कर रही है। जुलाई 2025 में  भारत के चुनाव आयोग ने बिहार के मतदाताओं से खुद को भारतीय नागरिक साबित करने के लिए कुछ दस्तावेज़ दिखाने का निर्देश दिया। चुनाव आयोग के अनुसार इसके जरिए अयोग्य मतदाताओं को हटाकर मतदाता सूची को ‘शुद्ध’ करना है। लेकिन यह प्रक्रिया अव्यवस्थित है। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाने वालों ने इसे ‘असंवैधानिक’ बताया है।

डेटा पत्रकार आयुषी कर कुछ ही महीनों पहले ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ टीम में शामिल हुई हैं। वह इस बिहार की मतदाता सूची मामले पर डेटा आधारित जांच कर रही हैं। इसमें संभावित धोखाधड़ी, प्रक्रिया के दुरुपयोग और आबादी के एक वर्ग को मताधिकार से वंचित करने के उदाहरण पाए गए हैं।

नितिन सेठी कहते हैं कि पहले इस विषय पर ज़्यादा रिपोर्टिंग नहीं हुई थी। लेकिन इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए हमने काम शुरू किया। “हमने एक विचारपूर्ण लेख पढ़ने के बाद तुरंत इस पर काम शुरू कर दिया।” ज़मीनी स्तर पर मौजूद पत्रकारों से संपर्क किया गया। सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत आवेदन दायर किए गए। विशेषज्ञों से बात करके इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप क्या गलत हो सकता है, इसका पता लगाना शुरू किया।

यह बिल्कुल वैसी ही रिपोर्टिंग है, जो ‘द रिपोर्टर्स कलेक्टिव’ की विशेषता है। इसमें भारत के उन हिस्सों की घटनाओं और जटिलताओं को उजागर करना है, जो मुख्यधारा के मीडिया की नज़रों से ओझल हो जाते हैं।

मयंक अग्रवाल वर्ष 2023 में इस संस्थान के सह-न्यासी बने। वह इसके संपादकों में से एक हैं। उन्होंने कहा- “हम एक टीम की तरह काम करते हैं। यह सुनिश्चित करते हैं कि हम ऐसी खबरें करें, जो हमारे लोकतंत्र के लिए ज़रूरी हों। यह एक ऐसी स्थिति है, जहां सबको मिलकर काम करना पड़ता है।”


रक्षा कुमार भारत में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। उनकी रिपोर्टिंग मानवाधिकार, भूमि और वन अधिकारों पर केंद्रित है। वर्ष 2011 से उन्होंने द न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी, द गार्जियन, टाइम और साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट जैसे मीडिया संस्थानों के लिए रिपोर्टिंग की है।

अनुवाद : डॉ. विष्णु राजगढ़िया

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